पुस्तकों से प्यार करने वाली सभी की प्रिय गीता दीदी आज नहीं रही

सीतापुर के लालबाग पार्क में स्तिथि हिंदी सभा के भवन में संचालित समाजसेवा संघ पुस्तकालय एवं वाचनालय की पिछले 33बरसो से प्रभारी रही गीता दीदी अपने आप में सीतापुर की पुस्तक दीदी थी ,हिंदी के बड़े बड़े विद्वानों और प्रकांड पंडित की कौन सी पुस्तक किस रैक की किस रो में लगी हुई है ,इसको आंख बन्द करके भी वो ढूंढ़ सकती थी ,एक मा अपने बच्चे के साथ जैसा अनुराग करती है वैसा ही स्नेह दीदी का इस पुस्तकालय की पत्र पत्रिकाओं के साथ भी था,इस पुस्तकालय की पहचान बन गई थी वो ,वे कोई खास पढ़ी लिखी नहीं थी लेकिन पुस्तकों का उनका रखरखाव इतना व्यवस्थित था कि बड़ा से बड़ा बी लीब भी उनके आगे पानी मांग जाए,वे कोई साहतियकार भी नहीं थी लेकिन हिंदी सभा में बड़े बड़े मूर्धन्य विद्वान आते थे उनके सामने वो कभी असहज नहीं हुई,



सीतापुर की हिंदी सभा का इतिहास जितना गौरवशाली है ,इसके पुस्तकालय का इतिहास भी उतना ही गरिमामई,हिंदी सभा के संस्थापक पंडित नवल बिहारी मिश्र एक उदारमना व्यक्तित्व थे,सरस्वती के साथ ही मा लक्ष्मी की भी उन पर असीम अनुकम्पा थी,उनके अपने खुद के पास भी पुस्तकों का अतुलनीय संग्रह था वो सब कुछ उन्होंने इस पुस्तकालय को दे दिया,लेकिन इस पुस्तकालय और वाचनालय को असली व्यवस्थित रूप देने का काम बाबू अमर नाथ मेहरोत्रा अंबो बाबू ने किया ,जिनके पिता जस्टिस विष्मभर नाथ मेहरोत्रा हिंदी सभा के संस्थापकों में से थे, अम्बो बाबू ने 50हजार रूपए की एकमुश्त व्यवस्था करके इस पुस्तकालय को व्यवस्थित कराया,वो खुद भी प्रकाशन के काम से जुड़े थे इस नाते उन्होंने इसको अन्य सहायता भी दी ,लेकिन पुस्तके होना ही तो पर्याप्त नहीं था ,आवश्यकता थी ये पुस्तकालय नियमित रूप से खुले,और इसका दायित्व कोई ऐसा व्यक्ति संभाले जो पुस्तकों से प्रेम करता हो ,वो न सिर्फ पुस्तकों का बेहतर रखरखाव करे बल्कि एक बेहतर वातावरण भी दे.



अमबो बाबू की तलाश जारी थी ,तभी उनके चिकत्सक मित्र डॉक्टर कपूर जिनके पास रंपा रोड पर रहने वाली एक लड़की जो अपने माता पिता के इलाज के लिए अक्सर उनके पास आती थी,उसका नाम कपूर साहब ने आंबो बाबू को सुझाया,उस समय तकरीबन 30साल की वो लड़की जिसने परिवार की ज़िम्मेदारियों का निर्वहन ही अपने जीवन का लक्ष्य बना रखा था, गीता नाम की वो लड़की अंबों बाबू से जाकर मिली और 10सितम्बर 1987से उसने इस पुस्तकालय का नियमित दायित्व निभाना शुरू कर दिया,लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था कुछ ही समय हुआ था कि गीता के भाई का निधन हो गया,और वो बुरी तरह से टूट गई,ऐसे मुश्किल वक़्त में हिंदी सभा के अंबी बाबू,रमा रमन त्रिवेदी,डॉक्टर गणेश दत्त सारस्वत ने परिवार को सहारा दिया,और गीता को हिम्मत,धीरे धीरे 8फरवरी 1988से गीता जी एक बार फिर से पुस्तकालय जाने लगी और तबसे अब तक क्या जाड़ा गर्मी बरसात वो नियमित रूप से अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन करती रही,उन्होंने अपना जीवन इस पुस्तकालय और किताबो को दे दिया ,किताबे उनका इश्क बन गई और जीवन का ध्येय भी,और गीता दीदी खुद हिंदी सभा का एक अनिवार्य अंग,वो अविवाहित रहकर जीवन भर अपनी 95 वर्षीया माता और 65 वर्षीया बड़ी बहन की सेवा और जीवन निर्वाह करती रही,



आपने हिंदी सभा में जब भी गीता जी को देखा होगा तो उनका व्यक्तित्व आपको एक और सीख भी देता है,बचपन में एक उंगली में हुए सेप्टीसीमिया के रहते उनका पूरा हाथ काटना पड़ा था ,उनका एक हाथ ही बाजू से नहीं रहा ,लेकिन इस दिव्यंगता को उन्होंने कभी अपने फर्ज के आड़े नहीं आने दिया और कभी भी इसकी अतिरिक्त सहानुभूति लेने का भी कोई उपक्रम नहीं किया,वे सच्चे अर्थों में एक रोल मॉडल रही जिसने विपरीत परिस्थितियों में भी सीतापुर के हिंदी और बौद्धिक जगत की बड़ी सेवा की ,



पुस्तकों से प्यार करने वाली सभी की प्रिय गीता दीदी आज नहीं रही ,कल रात उन्होंने अपनी अंतिम सांस ली ,दीदी आज नहीं है लेकिन किताबो के लिए उनका समर्पण और लगन हमेशा याद की जाएगी,



बहुत बहुत याद आओगी पुस्तक दीदी,,,,आपके श्री चरणों में नमन


Aradhya Shukla