पाउलो फ्रायरे की शिक्षा पद्धति में बच्चा शब्द के साथ-साथ संसार का भी संधान करता है.

1930 के शुरुआती सालों में में दुनिया भयानक मंदी के दौर में थी. ये साल पाउलो फ्रायरे के स्कूल जाने के दिन थे जिन्हें याद करते हुए उन्होंने अपने बायोग्राफर को बताया था – “भूख की वजह से मेरी समझ में कुछ नहीं आता था. मैं बुद्धू नहीं था अलबत्ता मेरे भीतर दिलचस्पी की कोई कमी नहीं थी. मेरे परिवार की सामाजिक-आर्थिक स्थिति मुझे इस बात की इजाजत नहीं देती थी कि मैं अच्छी शिक्षा हासिल कर सकूँ. अनुभवों ने मुझे सिखा दिया था कि सामाजिक स्थिति और ज्ञानार्जन के बीच क्या सम्बन्ध होता है.”



अपने शुरुआती बचपन में सहपाठियों से चार क्लास पिछड़ गए पाउलो ने मोहल्ले के गरीब बच्चों के साथ चीथड़ों से बनी फुटबॉल खेलते हुए समय गुजारा और जीवन के सबसे जरूरी सबक सीखे. उन्होंने तभी तय कर लिया था कि वे बड़े होकर गरीबों को शिक्षा दिलाने की दिशा में काम करेंगे.



19 सितम्बर 1921 को ब्राजील के पेर्नामबूको में जन्मे पाउलो फ्रायरे जब हाईस्कूल में पहुंचे तो उन्हें एक स्कूल में ग्रामर टीचर की नौकरी मिल गयी. 23 की उम्र में उन्होंने एक प्राइमरी स्कूल टीचर एल्जा माइया कोस्टा डी ओलिविएरा से शादी की. इस विवाह से उनके पांच बच्चे हुए जिनमें से तीन बाद में शिक्षक बने. एल्जा ने अपने पति को लगातार उत्साहित किया कि वे अपने सपने को पूरा करने के लिए कड़ी मेहनत करें.



1946 में उन्हें कामगारों और उनके परिवारों की मदद के लिए स्थापित की गयी एक संस्था का शिक्षा निदेशक बनाया गया. इस पद पर काम करते हुए उन्होंने देखा कि उनके देश की कुलीन शिक्षा पद्धति और निर्धन लोगों के जीवन की वास्तविकता के बीच कैसी गहरी खाई है. यहीं से उन्होंने अपने असल काम को शुरू किया और समाज के सबसे वंचित तबके को अच्छी और अर्थपूर्ण शिक्षा दिलाने के लिए एक अभिनव प्रणाली का विकास किया.



पाउलो फ्रायरे की शिक्षा पद्धति में बच्चा शब्द के साथ-साथ संसार का भी संधान करता है. उसे अपनी ऐतिहासिक और सामाजिक स्थिति का आकलन करने और उस पर सवाल उठा सकने लायक बनाया जाता है. रट्टा लगाने वाली पढ़ाई को छोड़ अध्यापक और छात्र के बीच एक डायलॉग स्थापित करना इस पद्धति का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा था. इस डायलॉग से दोनों को लाभ पहुंचता और एक दूसरे की बेहतर समझ भी हासिल होती. बच्चों से बेहतर संवाद बनाने के लिए अध्यापक को लोगों-परिवारों के बीच जाकर उनसे सम्बन्ध बनाने होते और अपनी कक्षाओं के लिए बेहतर कच्चा माल इकठ्ठा करना होता.



1962 में फ्रायरे ने इस पद्धति के पहले प्रयोग 300 खेत मजदूरों के साथ किए. पेर्नामबूको के खेतों में पेड़ों के नीचे क्लास चलाई गईं और केवल 45 दिनों में उन्हें लिखना-पढ़ना सिखा दिया गया. कुछ समय बाद सरकार को इस प्रयोग की जानकारी मिली तो उसने सारे ब्राजील में इस तरह के स्टडी सर्कल बनाने का फैसला किया.



इस काम के अंजाम तक पहुँचने से पहले ही 1964 में ब्राजील में सेना ने तख्तापलट कर दिया. नई सरकार ने पाउलो फ्रायरे को राष्ट्रद्रोही करार दिया और जेल में बंद कर दिया. 70 दिन जेल में रहने के बाद उन्हें देश से बाहर खदेड़ दिया गया. उन्हें बोलिविया जाना पड़ा जहाँ वे पांच साल रहे. यहीं उन्होंने अपनी पहली किताब ‘एजूकेशन एज द प्रैक्टिस ऑफ़ फ्रीडम’ प्रकाशित की. इस किताब के प्रकाशन ने उन्हें अंतर्राष्ट्रीय ख्याति दिलाई और वे हार्वर्ड में विजिटिंग प्रोफ़ेसर के रूप में बुलाये गए. उनकेअपने मुल्क ब्राजील में यह किताब अगले सात साल तक बैन रही.



फिर उन्हें जेनेवा बुलाया गया जहाँ उन्होंने विशेष शिक्षा सलाहकार के तौर पर दस साल काम किया. इन सालों में उन्होंने दुनिया भर में शिक्षण-सुधारों को लागू करने के बारे में काम किया और जगह-जगह भाषण दिए.



15 साल के देश निकाले के बाद ब्राजील की सरकार को उनकी याद आई और उन्हें अपने वतन लौटने की इजाजत मिल गयी. अगले साल यानी 1980 में वे वापस ब्राजील लौटे. 1988 में वर्कर्स पार्टी की सरकार बनी तो पाउलो फ्रेयरे को साओ पाओलो का शिक्षा मंत्री बनाया गया. उनके सम्मान में 1991 में सरकार ने पाउलो फ्रेयरे इन्स्टीट्यूट की स्थापना की. आज 18 देशों में इस इंस्टीट्यूट की 21 शाखाएं काम कर रही हैं.



2 मई 1997 को उनका देहांत हुआ.



उनकी मौत के बारह साल बाद 2009 में ब्राजील की सरकार ने पाउलो फ्रेयरे से उनके साथ हुए अन्याय के लिए सार्वजनिक माफी माँगी. चूंकि एक मर चुका आदमी आपकी माफी स्वीकार नहीं कर सकता ब्राजील में आज पाउलो फ्रायरे के नाम पर स्थापित कुल 340 स्कूल उनकी बनाई शिक्षा पद्धति पर चलाये जाते हैं.



प्रेम, सहानुभूति, उम्मीद और पाउलो फ्रायरे – ब्राजील के निर्धनों-कामगारों के बीच इन चार संज्ञाओं को पर्यायवाची शब्द समझा जाता है.


Ashok Pande