भारत के मूलवासी जिनमें जनजाति या आदिवासी समुदाय जिनमें अस्ट्रोलाइड भाषा समूह के और द्रविड़ियन भाषा समूह के समुदाय शामिल हैं। भारत के कुछ हिस्सों में मंगोलियन नस्ल की जनजाति भी निवास करते हैं। ये सभी समुदाय अपनी भाषा, जीवन शैली एवं अपनी संस्कृति में ‘आर्य समूह’ से बिल्कुल ही भिन्न हैं।
भारत के लगभग 20% भूभाग में 600 से भी अधिक आदिवासियों (प्रोटो-अस्ट्रोलाइड समूह और द्रविड़ियन समूह) जिनकी संख्या 10 करोड़ से भी ज़्यादा है। भारत में आदिवासियों की संख्या भारत की कुल जनसंख्या की सिर्फ 8% ही है।
पूर्वकाल में आदिवासियों का अपने प्राकृतिक संसाधनों पर पूर्ण अधिकार था, जैसे आज भी नॉर्थ ईस्ट स्टेट में नागा, खासी आदि जैसे अनेक जनजातियों की अपनी-अपनी सीमा क्षेत्र है और कोई भी बाहरी लोग उनके क्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं करते हैं।
लेकिन आधुनिक युग की शुरुआत के पूर्व जब भारत में कई विदेशी आक्रमणकारियों का प्रवेश होना शुरू हुआ तो यहां के आदिवासी समुदाय के जनजीवन में कोई फर्क नहीं पड़ा क्योंकि वे आक्रमणकारियों ने इन आदिवासियों के क्षेत्रों में प्रवेश नहीं किया था। हुन, मंगोल और मुगलों के भारत में बार-बार आक्रमण करने का मुख्य मकसद सिर्फ कीमती चीज़ों जैसे सोना, चांदी, कीमती बहुमूल्य पत्थर आदि को लूटना था।
मुगलों ने एवं मुस्लिम शासकों ने भारत में 1526-1857 तक लंबा शासन कायम किया लेकिन जब 17वीं शताब्दी के मध्य में कई विदेशी जैसे पुर्तगाल, फ्रेंच, डच आदि आये लेकिन अंग्रेज़ भारत में व्यापार करने के उद्देश्य से भारत आये तो इन्होंने धीरे-धीरे अपने साम्राज्य को फैलाना शुरू कर दिया और अंत में उन्होंने पूरे भारत पर कब्ज़ा कर लिया।
जब अंग्रेज शासकों ने अपना कानून बनाकर जल, जंगल और ज़मीन पर अपना अधिकार जमाना शुरू किया तब भारत के आदिवासियों ने सर्वप्रथम डटकर विरोध किया। 1778 ईसवीं में छोटानागपुर के पहाड़ी सरदारों ने अंग्रेज़ी शासकों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। 1780 ईसवीं में ‘कोल समाज’ एवं ‘तामार समुदाय’ के लोगों ने बगावत कर दिया। इस प्रकार ‘मुंडा विद्रोह’ ‘भील विद्रोह’, ‘खेड़वाल विद्रोह’, ‘संताल विद्रोह’, ‘कोवा विद्रोह’, ‘नायक विद्रोह’ , ‘नागा विद्रोह’ आदि असंख्य उदाहरण हैं जिनमें आदिवासी समुदाय ने लगातार संघर्ष और बलिदान दिया।
1857 के महान स्वतन्त्रता संग्राम में अगुवाई के लिए गोंडवाना के राजा ‘शंकर शाह’ और ‘रघुनाथ शाह’ को ब्रिटिश शासकों ने तोप के मुंह में बांधकर उड़ा दिया था। अंग्रेज़ हुकूमत की क्रूरता के आगे जब आदिवासी समुदाय के लोग नहीं झुके तब थक हारकर 1878 में ब्रिटिश शासकों ने आदिवासी क्षेत्रों में The Schedule District Act पारित कर वहां अलग प्रशासनिक व्यवस्था प्रारम्भ कर अन्य क्षेत्रों पर लगे कानून से इन क्षेत्रों को मुक्त कर दिया।
1935 में Government of India Act पारित हुआ जो आज का हमारे संविधान का आधार है। इस एक्ट के Chapter 05 में Excluded And Partially Excluded Areas करके दो क्षेत्र बनाये। ये दोनों क्षेत्र सारे आदिवासी समुदाय के क्षेत्र थे। इस एक्ट के Chapter 05 में कहा गया कि इन क्षेत्रों में जो Central और State के कोई भी कानून लागू नहीं होंगे इसका अर्थ यह था कि आदिवासी क्षेत्रो में अंग्रेज़ी हुकूमत के उन तमाम कानूनों से यह क्षेत्र मुक्त होंगे जो जल, जंगल और ज़मीन को लूटने के लिए अंग्रेज़ों ने बनाये थे जिससे पूरे भारत को गुलाम बनाया गया था। इसका सीधा मतलब था कि भारत के आदिवासी समाज अंग्रेज़ों के गुलाम नहीं थे।
जब देश आज़ाद हुआ और भारत का संविधान तैयार हुआ तो 1935 में बने Government of India Act के Chapter 05 को 10वें भाग में इसे रखा गया और उसे ‘अनुच्छेद 244’ में यह प्रावधान किया गया कि जितने भी आदिवासी क्षेत्र थे उन्हें पांचवी और छठी अनुसूची में बांट दिया जाए। पांचवी अनुसूची में कुछ पॉकेट्स अलग-अलग राज्यों में थे जहां आदिवासी समुदाय रहते थे उन क्षेत्रो को चिन्हित किया गया और उन क्षेत्रों को ‘पांचवी अनुसूची’ में शामिल कर दिया गया। इन्हें शेड्यूल एरिया कहा गया और जिन राज्यों में जो आदिवासी बहुल जैसे मिज़ोरम, नागालैंड, असम के पहले के राज्य थे चुकी इन राज्यों में आदिवासियों की संख्या लगभग 95% थी इन्हें ‘छठी अनुसूची’ में शामिल कर इन्हें आदिवाली इलाका कहा गया।
इन क्षेत्रों के लिए कहा गया था कि इनका प्रशासन अलग तरीके से चलेगा। इन क्षेत्रों का प्रबंधन आदिवासी केंद्रित बनाने का प्रावधान किया गया। ‘अनुच्छेद 244’ के तहत उन आदिवासी क्षेत्रों को ‘पांचवी’ और ‘छठी अनुसूची’ में बांटा गया। असम, नागालैंड, मिज़ोरम, त्रिपुरा जैसे राज्यों को ‘छठवीं अनुसूची’ ‘ट्राइबल एरिया’ और देश के अन्य नौ राज्यों को ‘पांचवी अनुसूची’ के तरह ‘शेड्यूल एरिया’ के रूप में वर्गीकृत किया गया।
इन क्षेत्रों के सामान्य और सभी कानून ‘आदिवासी कल्याण’ की दृष्टि में रख लागू किया जाना था लेकिन 1950 के बाद विधायिका अर्थात ‘विधान सभा’ ने इस पक्ष में कोई ध्यान ही नहीं दिया सिर्फ सरकार ही चलाते रहें, इलेक्शन कराते रहें। विडम्बना यह है कि जनजाति समाज के हित में बनी संविधान के इस योजना के सम्बन्ध में राज्यपाल और सांसद एवं विधायक अभी तक अनभिज्ञ हैं। नौकरशाही ने भी मंत्रियों का ध्यान इस और नहीं दिलाया। नतीजा यह हुआ कि गुलामी के जिन कानूनों से अंग्रेज़ी हुकूमतों ने आदिवासी समाज को मुक्त रखा था वे सभी कानून स्वाधीन भारत के लोकतान्त्रिक सरकारों ने उन आदिवासियों पर लाद दिए और आदिवासी समाज उन गफलत के कारण आज़ाद देश के गुलाम बन गए उनके उनके क्षेत्र से जल, जंगल, ज़मीन और खनिज का दोहन कर सरकार भरपूर मुनाफा कमा रही है।
आलेख : राजू मुर्मू (फ्रीलांस राइटर)