जेल को अपना दूसरा घर मानते थे स्वतंत्रता सेनानी पूरन चंद






जयंती विशेषः 

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आजादी की लड़ाई में 31 अगस्त 1942 में पूरन चंद जब जेल गए थे तब उनकी उम्र 17 साल से भी कम थी। 29 जून 1975 में इमरजेंसी में जब वे जेल गए तो उनकी उम्र 50 साल को छूने वाली थी। दोनों मौकों पर उनकी लड़ाई सत्ता की निरंकुशता से थी। आजादी से पहले विदेशी सत्ता से और आजादी के बाद कांग्रेस के नेतृत्व वाली इंदिरा गांधी की सत्ता से। पूरन जी की जितनी उग्रता अंग्रेजों की नीतियों खिलाफ थी उतनी ही उग्रता कांग्रेस की नीतियों के खिलाफ थी। जिस तरह से जोशीले नारे लगाते हुए वे अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान जेल गए थे उसी तरह की नारेबाजी करते हुए वे जेपी आंदोलन में भी जेल गए। पूरन जी की लंबाई साढ़े चार फुट के आसपास थी। इतने कम लंबाई के व्यक्ति का कद इतना बड़ा था कि अंग्रेज और कांग्रेसी दोनों उनसे थर्राते थे।

पूरन चंद का जन्म कार्तिक पूर्णिमा को 1925 में हुआ था इस साल कार्तिक पूर्णिमा 30 नवंबर को है। इसका अर्थ यह हुआ कि आज उनकी जयंती है। इस मौके पर उन्हें याद करते हुए उनके पुरानी सहयोगी और गणेश लाल अग्रवाल कॉलेज के राजनीति शास्त्र के पूर्व प्राध्यापक प्रो. युगल किशोर प्रसाद कहते हैं, 'पूरन जी का मानना था कि जो करना है वह समाज के लिए करो। समाज की संपत्ति का जब बंटवारा होगा तो तुम्हारा हिस्सा खुद तुम्हें मिल जाएगा। यही कारण था कि वह कभी किसी भी संकट में नहीं घबराते थे। जनता के साथ उनका जुड़ाव ऐसा था कि लोग उनके पंचमुहान स्थित कार्यालय में खींचे चले आते थे। पूरन पैदल-जनता पैदल सिर्फ नारा नहीं बल्कि उनके जीवन का यथार्थ था।'

आजादी की लड़ाई के दौरान पूरन चंद डालटनगंज के क्रांतिकारी स्वतंत्रता सेनानी गणेश प्रसाद वर्मा से खासे प्रभावित थे। वह उनके साथ रहते थे और उन्हीं की तरह अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई में शरीक हुए थे। बाद में पूरन जी डॉ. राममनोहर लोहिया के विचारों की ओर खींचते चले गए और समाजवादी आंदोलन में शामिल हुए। ये दोनों भी उन्हें काफी स्नेह देते थे। प्रो. प्रसाद के अनुसार, 'पूरन जी के पिता घुटुर साव ने उनका नाम डोमन साव रखा था। गणेश बाबू या डॉ. लोहिया ने उनका नाम बदल कर पूरन चंद कर दिया। डालटनगंज के कुंड मुहल्ला में उनका जन्म हुआ और उनकी शादी महुआडांड़ की राजमती देवी से हुई थी। विवाह के बाद देश सेवा के लिए उन्होंने घर त्याग दिया और पूरा जीवन समाज को सौंप दिया।' प्रो. प्रसाद बताते हैं कि 1962 में पूरन चंद सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़ रहे थे और लोहिया जी चुनाव प्रचार के लिए डालटनगंज में आए थे। वह उन्हें गाड़ी से शिवाजी मैदान ले जाना चाहते थे पर गाड़ी की व्यवस्था नहीं हो पाई। इससे जब वे निराश हो गए तो लोहिया जी ने उनके कंधे पर हाथ रखा और पैदल ही शिवाजी मैदान में सभा करने चल पड़े। यहीं पर लोहिया जी ने पूरन चंद को वोट देने की अपील करते हुए कहा था, 'चोर जिताए बार-बार, चौकीदार जिताओ इस बार।' हालांकि इस चुनाव में वे हार गए और रामगढ़ के राजा कामाख्या नारायण सिंह की पार्टी के उम्मीदवार सच्चिदानंद त्रिपाठी विजयी हुए थे। इसके बाद भी उन्होंने सभा की और लोगों को समर्थन देने के लिए आभार जताते हुए कहा कि शहर में तो उनकी जीत हुई पर गांव में वह पिछड़ गए। अगली बार गांव से भी लोग उन्हें समर्थन देंगे। हुआ भी ऐसा ही, वह गांव-गांव तक पैदल घूमे। नतीजा यहा हुआ कि वह 1967, 69, 72 और 77 यानी लगातार चार बार वह डालटनगंज- चैनपुर- भंडरिया विधानसभा क्षेत्र से विधायक चुने गए। प्रो. प्रसाद बताते हैं कि पूरन चंद की जनता के बीच ऐसी पकड़ बन चुकी थी कि लोग 'दीदा तोर फूटे रे कांग्रेसिया, वोटवा पूरन चंद के जाए' की तर्ज पर गीत गाते थे और 'पूरन नहीं यह आंधी है छोटानागपुर का गांधी है' के नारे लगाते थे।

प्रो. सुभाष चंद्र मिश्रा जब कॉलेज में पढ़ते थे तभी से उनके संबंध पूरन चंद के साथ रहे हैं। वह कहते हैं, 'वैचारिक मतभेद के बाद भी पूरन जी के साथ उनका रिश्ता बड़े और छोटे भाई की तरह था। वह जब भी रांची में हमलोगों के पास आते तो समाजवाद और समाज की उन्नति की ही बात करते थे। विधायक बनने से पहले और विधायक नहीं रहने के बाद भी उनके रहन-सहन में कोई फर्क नहीं आया। 'घसीटे का कोठा, धर्मशाला का लोटा और पिंटू का ओटा' की कहावत को उन्होंने चरितार्थ किया।' (घसीटे का कोठा वह स्थान है जहां पूरन चंद रहते थे। यह मोती मिष्ठान भंडार के ऊपर है और यहीं उनकी मूर्ति भी लगी है। धर्मशाला का लोटा मतलब शौचादि से निवृत्त होने के लिए वह गणपति धर्मशाला जाते थे। पिंटू का ओटा मतलब वह जगह जहां वे रोज बैठा करते थे। एक समय पिंटू होटल और पंजाब होटल पलामू की राजनीतिक गतिविधियों के केंद्र होते थे।)

इमरजेंसी के दौरान पूरन चंद के साथ जेल में रहे मीसा बंदी और जीएलए कॉलेज छात्र संघ के तत्कालीन महामंत्री रविशंकर पांडेय बताते हैं कि इस व्यक्ति में इतनी ऊर्जा भरी थी कि वे पूरे जेल में लोगों को उत्साहित करते थे। अंग्रेजी शासन से लेकर कांग्रेस शासन तक अनगिनत बार जेल गए, इसे अपना दूसरा घर मानते थे और कहते थे कि उनका एक पैर हरदम जेल में ही रहता है। पांडेय जी कहते हैं, 'डालटगंज जेल का वार्ड नंबर छह उनका स्थायी ठिकाना था। इमरजेंसी के दौरान उनके बवासीर का ऑपरेशन रांची में हुआ था। जाने से पहले उन्होंने मुझ से कहा कि देखो जिंदा लौटते हैं या नहीं। ऑपरेशन के बाद जब वे लौटे तो उन्होंने कहा कि डॉक्टर बिल्कुल यमराज की तरह लग रहे थे पर मैं बच कर आ गया।' इमरजेंसी के पहले एक बार डालटनगंज में पूरन चंद समेत काफी लोग गिरफ्तार कर थाने में लाए गए थे। यहां जब पुलिस अधिकारी ने उनसे उनके पिता का नाम पूछा तो उन्होंने जवाब दिया कि डॉक्टर राममनोहर लोहिया उनके पिता हैं। रविशंकर पांडेय इस घटना के साक्षी थे। वे कहते हैं, 'लोहिया जी के व्यक्तित्व से पूरन जी कितने प्रभावित थे, इसका अंदाजा उनके इस जवाब से लगाया जा सकता है। उनके जैसा संघर्षशील, जमीनी स्तर पर लोगों से जुड़ा हुआ और दृढ़निश्चयी नेता पलामू में बहुत कम ही हुए हैं।'

पूरन जी 1977 में कर्पूरी ठाकुर मंत्रिमंडल में खान मंत्री थे। 1980 में जब चुनाव हुआ तो उन्हें पराजय का मुंह देखना पड़ा। भाजपा के इंदर सिंह नामधारी ने जीत हासिल की। इसके बाद भी वे समाज से कटे नहीं लोगों के सुख-दुख में शामिल होते रहे। 1995 के चुनाव के दौरान भी वे मैदान में थे। इस दौरान मैंने उनका इंटरव्यू किया था तो वे जीत के प्रति आश्वस्त थे। चुनाव परिणाम आया तो हार के बाद भी तनिक भी विचलित नहीं थे। तब उन्होंने कहा था, 'चुनाव लड़ना लोकतंत्र की खूबसूरती है। हारने वाला भी उसी ताकत से गलत का विरोध करता है जिस ताकत से जीतने वाला अच्छा काम करने का प्रयास। हम तो लोहिया जी को मानने वाले हैं। जिंदा कौमें पांच साल इंतजार नहीं करतीं का मंत्र जपतते हैं।'

30 जुलाई 2001 को समाजवादी आंदोलन के इस महान योद्धा ने आखिरी सांस ली। आज उन्हें 95वीं जयंती पर सादर नमन।



साभार: prabhat mishra