जीना इसी का नाम है...






 

लगभग पच्चीस साल पहले मैंने एक छोटी सी-पतली सी किताब पढ़ी थी। नवयुवकों से दो बातें। प्रिंस क्रोपाटकिन इसके लेखक हैं। लगभग डेढ़ सौ साल पहले के रूस में लिखी गई इस किताब की याद मुझे क्यों हैं। इस छोटी सी पुस्तिका में प्रिंस क्रोपाटकिन अपने देश के नौजवानों से पेशा चुनते वक्त उनके सरोकारों के बारे में पूछते हैं।

वे कहते हैं कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि वकील बनकर तुम लुटेरे और हत्यारे के पक्ष में तर्क गढ़ोगे। कहीं ऐसा तो नहीं है कि पुलिस और फौज में भर्ती होने के बाद निर्दोष लोगों की तरफ तुम्हारे हथियारों के मुंह होंगे। मैं अकसर ही तमाम माध्यमों में पढ़ता हूं कि रिक्शेवाली की बेटी आईएएस बनी। लुहार का बेटा आईपीएस बना। सोशल माध्यमों में भी इस तरह की खबरें छाई रहती हैं। हम लोग इसे तमाम जगहों पर साझा करते हैं। लेकिन, कई बार मेरे मन में सवाल उठता है कि कहीं जिलाधिकारी बनने के बाद रिक्शेवाली की बेटी ने शहर के तमाम रिक्शेवालों की रोजी उजाड़ दी। लुहार के बेटे ने पुलिस अधिकारी बनने के बाद कहीं ऐसा तो नहीं है कि तमाम लुहारों को अवैध हथियारों के निर्माण में बंद कर दिया हो। कहीं नौकरी ने उनकी संवेदनाएं छीन तो नहीं लीं।

इस चालाक और अवसरवादी दुनिया में खुद के अस्तित्व को बचाने के लिए और ज्यादा से ज्यादा ऊंची पायदान पर पहुंचने के लिए कहीं दुनियादारी को ही तो वे सबसे बड़ा आदर्श नहीं मान बैठे हैं। आज के समय में तमाम लोग टू बीएचके को थ्री बीएचके करने में जुटे हुए हैं। हैचबैक को सेडॉन और एसयूवी करने में जुटे हुए हैं। चौबीस इंच को बावन इंच करने में जुटे हुए हैं। बारह मेगा पिक्सल को बासठ मेगा पिक्सल करने में जुटे हुए हैं। वे हर समय इसी जुगत में लगे हुए हैं कि कैसे उनका जीवन स्तर ऊंचा उठ जाए।

लेकिन, क्या जीवन स्तर सिर्फ मकान के कमरों, कार की लग्जरी, टीवी स्क्रीन के साइज और मोबाइल के फीचर से तय होता है। क्या हम उन परछाइयों का पीछा नहीं कर रहे हैं जो हमें लगातार जिंदगी से और दूर ले जा रही हैं। मेरे आसपास बहुत सारे लोग खुद में अतृप्त और खोखले दिखाई देते हैं। उनकी इच्छाएं अधूरी हैं, वे खुद से खुद को खोखला मानने लगे हैं। काफी कुछ लेव तोलस्तोय के इवान इल्यीच की तरह। जो अपनी अतृप्त इच्छाओं के पीछे भागते-भागते अंदर से रीत जाता है। लेकिन, ऐसे में कुछ दूसरी तरफ कुछ बिरले और बौड़म किस्म के लोग भी दिखाई देते हैं।

मेरे एक मित्र पत्रकारिता का अपना चमकदार कैरियर छोड़कर बांदा की पथरीली और बंजर जमीन में जलाशयों, जंगलों और खेतों के निर्माण में जुटे हैं। एक मित्र हैं जो अमेरिका में अपनी इंजीनियरिंग की जॉब छोड़कर दिल्ली में तितलियों के पालन-पोषण और संरक्षण में लगे हुए हैं। डीयू के एक प्रोफेसर साब को मैं जानता हूं जो विश्वविद्यालय को तमाम तरह से दुह देने की चिंताओं से दूर हर फुरसत में यमुना खादर के पक्षियों को देखने में डूबे रहते हैं। मेरे एक वन्यजीव विज्ञानी मित्र घास के एक छोटे से तिनके का जीवन बचाने के लिए भी दूसरों से लड़ और उलझ पड़ते हैं।

किसी की मुस्कुराहटों पर हो निसार। किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार। किसी के वास्ते हो तेरे दिल में हो प्यार। जीना इसी का नाम है। अगर आप अनाड़ी फिल्म के इस गाने को गौर से देखें तो पाएंगे कि अपनी मस्ती में उछलते-कूदते जा रहे राजकपूर के कदम अचानक ठिठक पड़ते हैं। उनके पैरों के नीचे एक छोटा सा टिड्डा बस आते-आते बचा है। वो पीपल के पत्ते पर उठाकर उसे एक पेड़ तक पहुंचा देते हैं।

दुनिया ऐसे ही अनाड़ियों और बौड़मों से भरी हुई है। वे एक-एक कीड़े की जिंदगी बचाने में जुटे हुए हैं। वे दिन भर तितलियों और पक्षियों के पीछे भागते फिरते हैं, उनकी तस्वीरें उतारते हैं, उनके जीवन चक्र को जानने-समझने की कोशिश करते हैं। ताकि, उनका जीवन बचाया जा सके। वे अपने आसपास मौजूद जीवन के विविध रूपों के प्रति प्यार से भरे हैं।

नफरत नहीं ऐसे अनाड़ियों और बौड़मों का प्यार ही इस धरती को जीवन देगा....

(तस्वीर इसी गाने की है और इंटरनेट से ली गई है)


Kabir Sanjay