जब तक किसानों और मजदूरों में वर्गीय चेतना नहीं आती तब तक उनके द्वारा जा रहे आंदोलन कोई विशेष परिणाम नहीं दे सकते
हर बार किसानों और मजदूरों के प्रतिरोध की आवाज़ सुनाई देती है तो ऐसा लगता है कि इस लूट और शोषणकारी व्यवस्था का अंत निकट आ गया है l किसानो और मजदूरों पर जब जुल्म की इंतिहा होती है तब ज़्यादा दिन की देर नहीं जुल्मी तेरी खैर नहीं जैसी फीलिंग होती है l

लेकिन यह सारी उम्मीद उस समय धाराशाही हो जाती है जब चुनाव होते हैं l चुनाव आते ही सारे मजदूर किसान अपना अपना दुख और शिकवा शिकायत भूलकर अचानक हिन्दू मुस्लिम हो जाते है और फिर इसी आधार पर मतदान करते है l देश के अलग अलग हिस्सों से पैदल बिहार लौटे प्रवासी मजदूरों ने भूखे प्यासे रहकर पांव पांव चलते हुए जो कष्ट भोगे ,रोजगार छिनने से जो बदहाली हुई , सरकार की बेरुखी से जो दुख पंहुँचा वह चुनाव के परिणाम में कहीं दिखा ही नहीं l बिहार के बाहर सब बिहारी थे और उन्हें इस पर गर्व था l लेकिन बिहार पहुंचते ही कोई यादव , कोई कुर्मी , कोई भूमिहार ,कोई राजपूत ,कोई ब्राह्मण ,कोई दलित अति दलित ,पिछड़ा अति पिछड़ा बन गया l सबने अपनी अपनी जाति के नेताओ और पार्टी की देखकर वोट दिया l चुनाव में साम्प्रदायिक और जातीय ध्रुवीकरण के चलते ना किसान किसान रह पाता है और ना मजदूर मजदूर l

कहने का आशय चुनाव में जनता की ना कोई आकांक्षा नज़र आती है और ना कोई उम्मीद l ध्रुवीकृत समाज मे मुद्दा सिर्फ एक ही है अपना धर्म अपनी जाति l

एक धर्म के प्रति दूसरे धर्म और एक जाति कब प्रति दूसरी जाति के प्रति जो ज़हर फैलाया गया है उससे कुछ सियासी जमातों को भले ही फायदा हो रहा हो लेकिन उसने समूचे वातावरण को ज़हरीला बना दिया है l लगातार गहराता हुआ यह अलगाव और परस्पर घृणा से भारतीय समाज के विखंडन की चिंता जनक स्थिति आ पहुंची है l

जब तक किसानों और मजदूरों में वर्गीय चेतना नहीं आती तब तक उनके द्वारा जा रहे आंदोलन कोई विशेष परिणाम नहीं दे सकते

gopal rathi