बादशाह नसीबुद्दौलाह सुल्तान फतेह मीर अली खान बहादुर उर्फ टीपू सुल्तान






आज जंग ऐ आजादी के सबसे पहले शहीद टीपू सुल्तान रह० की यौमे पैदाइश है । जुमा के रोज़ 20 नवम्बर 1750 ई को कर्नाटक के देवनाहल्ली (यूसफाबाद) में एक फौजी अफसर के घर पैदा हुए सही तालीम और घर की परवरिश का नतीजा था कि वह सिर्फ 17 साल की उम्र में अहम सफारती काम सरंजाम देने लगे अपनी बेहतरीन कार्यकरदगी की बदौलत वह जल्द ही फौज के अहम ऑफिसर बन गए ब्रितानियाँ के खिलाफ पहली जंग में उन्होंने 15 साल की उम्र में अपने वालिद के साथ हिस्सा लिया यह वही शख्सियत थे जिन्होंने भारत के लोगों को बताया कि भारतीयों की आज़ादी को सबसे बड़ा खतरा अंग्रेजों से है जिसके लिए उन्होंने बर्रे सग़ीर मैं हुकूमत करने वाले कई नवाब, राजा और ज़मींदारों से समझौता किया था । यहां तक तुर्की, फ्रांस और चीन से भी समझौता किया था । टीपू सुल्तान की क़दर मंजिलत जानने के लिए यही काफी है कि फ्रांस का नेपोलियन तक ब्रितानिया के खिलाफ किसी को लड़ने के काबिल समझता था तो वह टीपू सुल्तान था टीपू सुल्तान के सर ना सिर्फ़ ब्रितानिया को शिकस्त पे देने का सेहरा है बल्कि यही वह शख्स है जिसके साथ ब्रितानिया ने झुककर समझौता किया आखरी समझौता जिसमें शर्त अंग्रेज ने नहीं बल्कि एक मुस्लिम सुल्तान ने लगाई । लोग अक्सर टीपू सुल्तान को उनकी जंगी सलाहियतों की वजह से जानते हैं हालांकि वह उसके साथ-साथ एक बेहतरीन सफारतकार भी थे और एक बेहतरीन हुकमरां भी थे उन्होंने अपने इलाके में सड़कों का जाल बिछाकर सफर को आसान बनाया तालीम पर खास तवज्जो दी बेहतरीन फौजी एकेडमी का कयाम भी उन्हीं के सर है । इतिहासकारों का दावा है कि कर्नाटक-तमिलनाडु का जो हिस्सा उनके अधिकार में रहा, उसमें उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया जो कि दर्शाता हो कि वह किसी वर्ग विशेष के प्रति बैर भाव रखते हों । टीपू अंग्रेजों के रास्ते का सबसे बड़ा रोड़ा था इसलिए अंग्रेजों ने उन्हें एक खलनायक की तरह पेश किया। सच बात तो यह है कि भारत में अंग्रेजों और उनकी ईस्ट इंडिया कंपनी की फौज अपने दो सौ साल के इतिहास में अगर किसी से हारी है, तो वे मैसूर के सुल्तान ही थे । तमिलनाडु के थेनी जिले के कोम्बाई कस्बे में भगवान रंगनाथास्वामी का मंदिर है, जिसमें उत्सवों के दौरान बड़ी संख्या में मुस्लिम औरतें और मर्द हिस्सा लेते हैं। कहा जाता है कि यह मूर्ति टीपू सुल्तान ने श्रीरंगपट्टनम से भेजी थीं जोकि आजकल कर्नाटक में है, लेकिन तब यह मैसूर सलतनत की राजधानी हुआ करती थी। जानकार इतिहासकारों का कहना है कि जब हैदर अली और टीपू सुल्तान दक्षिण पर हमले कर रहे थे तब कोम्बाई के जमींदारों ने टीपू सुल्तान की सेना के लिए प्रशिक्षित कोम्बाई कुत्तों को मदद के लिए भेजा था, जो कि दुश्मनों के घोड़ों को चीर फाड़ सकते थे। कोम्बाई के जमींदार कन्नड भाषी वोक्कालिगा थे और उनके इस भाव से प्रभावित होकर सुल्तान ने भगवान रंगनाथस्वामी की मूर्ति को भेजा था । फोर्ट सेंट जॉर्ज में सेंट मैरी के एक चर्च में ब्रिटिशकालीन पट्टिका लगी हुई है, जिसमें कहा गया है कि टीपू सुल्तान ईसाई पादरियों को लेकर बहुत उदार था। यह बात उन लोगों ने लिखी है जो कि टीपू सुल्तान के कट्टर दुश्मन थे। टीपू सुल्तान और उनके वालिद हैदर अली ने आज के तमिलनाडु के उन ब्रिटिश सम्पत्तियों पर हमले किए थे जो कि उत्तरी आर्काट, एम्बुर, तिरुवन्नमलाई, डिंडीगुल, सलेम, इरोड, कोयम्बटूर, तंजावुर और अन्य हिस्सों से किए गए थे। सत्रहवीं सदी के अंत में अंग्रेजों और मैसूर रियासत के बीच चार युद्ध लड़े गए थे। ऐसी पहली लड़ाई (1767-69) में हुई थी जिसके दौरान हैदर अली मद्रास के दरवाजों तक पहुंच गए थे और ब्रिटिश सेना से संधि के बाद लौट आए थे । उस वक़्त टीपू के साम्राज्य में पश्चिमी तमिलनाडु के बड़े हिस्से शामिल थे, लेकिन आर्काट के नवाब और ट्रावनकोर के राजाओं ने टीपू के खिलाफ़ अंग्रेजों का साथ दिया था । टीपू की अंग्रेजों के खिलाफ़ यह थी सबसे बड़ी जीत अंग्रेजों के खिलाफ़ टीपू की सबसे बड़ी जीत सितंबर, 1780 में हुई थी जब कांचीपुरम के पास पॉलीलूर की लड़ाई में चीनी फायरवर्क्स तकनीक का इस्तेमाल किया था। उस वक़्त दुनिया में पहला वेपनाइज्ड रॉकेट्स थे, जिन्हें विलियम बेली के नेतृत्व वाली ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना पर इस्तेमाल किया गया था। इससे पहले अंग्रेजों ने कभी ऐसे रॉकेट्स नहीं देखे थे जो कि लोहे की ट्यूब में प्रोपेलेंट्स के सहारे दो किलोमीटर तक मार करते थे । इतिहास में दर्ज है कि इन रॉकेटों की बौछार से ब्रिटिश कंपनी के हथियार गोदामों में आग लग गई थी और तब अंग्रेजों को भारत में सबसे ज़्यादा बुरी हार देखनी पड़ी थी। वास्तव में टीपू की लड़ाई ब्रिटिश और उन नवाबों व मराठों से थी जो कि अंग्रेजों का साथ देते थे। दुनिया की पहली वेपनाइज्ड चाइनीज फायरवर्क्स तकनीक के सहारे हैदर अली और टीपू ने अंग्रेजों को हराने की सामर्थ्य हासिल की थी। हैदर अली की सेना में जहां 1200 रॉकेट चलाने वाले सैनिक थे वहीं टीपू सुल्तान की सेना में इनकी संख्या 5000 के करीब थी। लड़ाई के दौरान पकड़े गए दुश्मन के सैनिकों को श्रीरंगपट्टनम भेजा जाता था, उन्हें इस्लाम की शिक्षा दी जाती थी, अगर कोई कबूल करता तो उसे पैदल सेना में भर्ती किया जाता था। उस समय के तमाम शासक ऐसा ही करते थे और तब यह स्टेंडर्ड प्रोसीजर था और तमिलों, कूर्ग के कोडवाओं, मैंगलोर और मलाबार के ईसाई सैनिकों या ब्रिटिश सैनिकों के मामले में यह बात लागू थी क्योंकि टीपू का उद्देश्य अपनी ताकत बढ़ाना था। आज टीपू के इन कामों को तमिलों के खिलाफ माना जाता है लेकिन सच तो यह है कि उसकी कार्रवाई तमिलों या किसी भाषा, धर्म या क्षेत्र के खिलाफ न होकर ताकत और ब्रिटिश भूमि को लेकर थी। हालांकि इतिहासकार यह भी कहते हैं कि टीपू ने मैसूर में कन्नड़ के स्थान पर फारसी को प्रशासनिक भाषा बनाकर इस्लाम को फैलाया, लेकिन ऐसे भी बहुत सारे उदाहरण हैं जिनके तहत उसने अपने क्षेत्र में आने वाले हजारों मंदिरों का संरक्षण किया। टीपू और श्रृंगेरी मठ के प्रमुख के बीच 28 पत्र उपलब्ध हैं जिनसे पता चलता है कि अंग्रेज और मैसूर राज्य की तीसरी लड़ाई के बाद मराठों ने मठ को लूट लिया था, लेकिन मठ का पुनरोद्धार टीपू सुल्तान ने कराया था। उनका प्रधानमंत्री एक मुस्लिम था तो रक्षा। मामलों का प्रभारी एक हिंदू था...।



टीपू सुल्तान की छवि लेकर पिछले कई सालों के राजनीति हो रही है। मैसूर के इस शासक को लेकर अलग-अलग मत है। एक पक्ष उन्हें वीर योद्धा और महान शासक मानता है तो दूसरा सांप्रदायिक नजर से देखता है। लेकिन राजनीति के चश्में से उनकी छवि को न देखा जाए तो वो 16वीं सदी के महान शासक थे।

रॉकेट तकनीक का इस्तेमाल और टीपू वे पहले ऐसे योद्धा थे जिन्होंने दक्षिण में राज्य विस्तार के दौर में युद्ध में पहली बार रॉकेट तकनीक का इस्तेमाल किया। एक तरह से उन्हें भारत में रॉकेट साईंस का पितामह कहा जा सकता है। इतिहासकारों के मुताबिक, पोल्लिलोर की लड़ाई में उनके रॉकेटों के इस्तेमाल ने पूरा खेल ही बदलकर रख दिया था। इससे टीपू की सेना को खासा फायदा हुआ। भारत के मिसाइलमैन के कहे जाने वाले ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने अपनी किताब ‘विंग्स ऑफ़ फायर’ में लिखा है कि उन्होंने नासा के एक सेंटर में टीपू की सेना की रॉकेट वाली पेंटिग देखी थी। उन्होंने अपनी इस किताब में लिखा, “मुझे ये लगा कि धरती के दूसरे सिरे पर युद्ध में सबसे पहले इस्तेमाल हुए रॉकेट और उनका इस्तेमाल करने वाले सुल्तान की दूरदृष्टि का जश्न मनाया जा रहा था। वहीं हमारे देश में लोग ये बात या तो जानते नहीं या उसको तवज्जो नहीं देते।” कहा जाता है कि उन्होंने जिन रॉकेटों इस्तेमाल किया वो बेहद छोटे होते थे लेकिन उनकी मारक क्षमता कमाल की थी। इनमें प्रोपेलेंट को रखने के लिए लोहे की नलियों का इस्तेमाल होता था। ये ट्यूब तलवारों से जुड़ी होती थी। बताया जाता है कि उन रॉकेट की मारक क्षमता लगभग दो किलोमीटर तक होती थी।



शहीद ऐ हिन्द को भी बान दिया विवादित



वहीँ, दक्षिणपंथी संगठन कहते हैं कि टीपू सुल्तान ने तटीय दक्षिण कन्नड़ जिले में मंदिरों और चर्चों को ध्वस्त करवाया और कई लोगों को धर्मातरण करने पर मजबूर किया था। इतना ही नहीं वे इतिहास को थोड़ा तोड़मरोड़ कर कहते हैं कि टीपू सुल्तान की सेना ने हिंदुओं पर जुल्म किया, मंदिरों को लूटा और उनकी महिलाओं के साथ बलात्कार किया। लेकिन लेखकों और इतिहासकारों का नजरिया इससे ठीक उलट है। टीपू से जुड़े दस्तावेजों की छानबीन करने वाले इतिहासकार टी.सी. गौड़ा कहते हैं कि ये सभी कहानियां जानबूझकर गढ़ी गई हैं। वे कहते है कि टीपू ऐसे भारतीय शासक थे जिनकी मौत मैदान-ए-जंग में अंग्रेजों के खिलाफ लड़ते-लड़ते हुई थी।

इसके उलट टीपू ने श्रिंगेरी, मेल्कोटे, नांजनगुंड, सिरीरंगापटनम, कोलूर, मोकंबिका के मंदिरों को जेवरात दिए और सुरक्षा मुहैया करवाई थी। टी.सी. गौड़ा कहते हैं कि ये सभी जानकारी सरकारी दस्तावेजों में मौजूद हैं। टी.सी. गौड़ा ने बीबीसी को दिए एक इंटरव्यू में बताया था कि टीपू ने सजा के तौर पर उन लोगों को धर्मातरण के लिए मजबूर किया जिन्होंने ब्रितानी सेना का साथ दिया था।



भारत में कुछ जगहों के कपड़े खास मशहूर हैं. उनमें मैसूर की साड़ियों की खास ही धमक है, पर जानते हैं, किसके चलते मैसूर के कपड़ों की धाक जमी...?

शेरे मैसूर टीपू सुल्तान की वजह से...!

टीपू सुल्तान आज हमारे बीच नहीं हैं लेकिन इतिहास में उन की धमक आज भी है और कुछ नेता गण उन पर गन्दी राजनीत करते हैं ये देश हित में दुर्भाग्य की बात हैे.

खैर, 217 साल पहले (4 मई, 1799) को टीपू सुल्तान दुनिया से कूच कर गए लेकिन आज भी उन से हमारा दिली जुड़ाव वैसा ही मज़बूत है. और वो जुड़ाव है उन की विरासत के जरिए. एक नजर उन खास चीजों पर जिनके जरिए टीपू की विरासत आज भी हमारे बीच सुरक्षित है.

★ मैसूर के कपड़े को खास बनाने का श्रेय टीपू को ही जाता है...!

★ मैसूर क्षेत्र में रेशम के कीड़े पालने के व्यवसाय की शुरुआत टीपू ने ही करवाई थी...!

★ टीपू सुल्तान ने बंगाल से शहतूत के पेड़ लगाने की कला सीखी और अपने राज्य में 21 अलग-अलग केंद्रों पर इसकी ट्रेनिंग देनी शुरू की. आगे चलकर ये उद्योग मैसूर का सबसे प्रमुख उद्योग बना...!

आज ज़माना जानता है कि मैसूर का रेशम (सिल्क) देश भर में अपनी गुणवत्ता के चलते जाना जाता है.

टीपू ने न सिर्फ बाहर से कपास के आयात पर रोक लगाई बल्कि इस बात का भी पूरा ख्याल रखा कि हर बुनकर को कपड़े तैयार करने के लिए अच्छी मात्रा में कपास मिलता रहे...!

★ टीपू ने गन्ने की खेती के लिए चीनियों की मदद ली और बड़ी मात्रा में मैसूर में गन्ने की खेतीे होने लगी यह टीपू सुल्तान का ही योगदान माना जाता है...! इस खेती के लिए टीपू सुल्तान ने चीनी विशेषज्ञों की मदद ली थी. जिनके संरक्षण में अच्छी गुणवत्ता के गुड़ और शक्कर का उत्पादन होता था...!

★ टीपू ने बहुत सी जंगें लड़ीं जिन में चार बड़ी मशहूर जंगें अंग्रेजों से लड़ी गयीं, अपनी लड़ाइयों के बीच टीपू को जो थोड़ा सा शांति का वक्त मिला उस दौरान उनहों ने कई समाज सुधार के काम किए जिस में से एक बड़ा काम शराबबंदी का था...!

★ टीपू सुल्तान का पालतू जानवरों जैसे गाए और खेती से गहरा रिश्ता रहा है. टीपू सुल्तान ये बात समझते थे इसलिए उन्होंने जानवरों की अच्छी नस्लें तैयार करने पर भी खासा योगदान दिया. 'हल्लीकर' और 'अमृत महल' नस्ल की गायों की प्रजाति का विकास उनके इन कदमों का ही ठोस परिणाम माना जाता है.

कहा जाता है कि देशी नस्ल की गायों का प्रयोग वो पहाड़ियों पर हथियार चढ़ाने में भी करते थे. यानी जिस गाय के नाम पर देशभर में आज नेता पॉलिटिक्स-पॉलिटिक्स खेल रहे हैं, उस गाय से टीपू का बड़ा ही खास रिश्ता था...!

★ भारत की देसी रॉकेट टेक्नोलॉजी टीपू सुल्तान की ईजाद है, टीपू सुल्तान के मिसाइल कारखाने को अब संग्रहालय में बदल दिया गया है...!

वर्तमान इतिहासकार मानते हैं कि भारत में मिसाइल या रॉकेट टेक्नोलॉजी का प्रारंभिक ज्ञान टीपू का ही लाया हुआ है. ये आजकल के आधुनिक मिसाइल और रॉकेट की तरह ही हुआ करते थे. अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाइयों में टीपू ने इन रॉकेट का खुलकर प्रयोग किया था.

इनमें से कुछ आज भी इंग्लैण्ड के रॉयल आर्टिलरी म्यूजियम में सुरक्षित हैं. 'दरिया दौलत', जो कि टीपू का गर्मियों का महल हुआ करता था, श्रीरंगपट्टन्नम में है. यहां पर जो पेटिंग्स मिलती हैं उनसे साफ पता चलता है कि युद्ध में बड़े स्तर पर टीपू ने मिसाइलों का इस्तेमाल किया था.

टीपू के श्रीरंगपट्न्नम के महल में एक अहाता है जहां से इन मिसाइलों को लॉन्च किए जाने के सुबूत भी मिलते हैं. डीआरडीओ के विशेषज्ञ वैज्ञानिकों ने भी इस जगह का दौरा किया था. साथ ही कई बार उन्होंने उसके अच्छे रखरखाव की गुजारिश भी की है. यहां पर एक मिसाइल मियूज़ीयम बनाए जाने का भी सुझाव है...!

'मेक इन इंडिया' से सदियों पहले टीपू ने चलाया था 'मेक इन मैसूर' अभियान

टीपू को पश्चिमी विज्ञान और तकनीक से बहुत लगाव था. उसने कई बंदूक बनाने वाले, इंजीनियर, घड़ी बनाने वाले घड़ीसाज और दूसरे तकनीकी विशेषज्ञों को फ्रांस से मैसूर बुलाया. उसने मैसूर में ही कांसे की तोप, गोले और बंदूकें बनानी शुरू कीं जिन पर 'मेड इन मैसूर' लिखा होता था...!

★ भारत की ही तरह अन्य देशों जैसे पाकिस्तान में भी टीपू पर कई टीवी सीरियल बन चुके है...!

★ टीपू सुल्तान को ये बातें भी बहोत ख़ास बनाती हैं...

हाल में ही आई 'केट ब्रिटलबैंक' की किताब 'लाइफ ऑफ टीपू सुल्तान' की माने तो टीपू सुल्तान अपने वक्त में ब्रिटेन में भारत का सबसे डरावना इंसान माना जाता था. माने ब्रिटेन में लोग उस वक्त उसका बहुत भय मानते थे इसीलिए जब टीपू की मौत हुई तो वहां पर खुशियां मनाई गईं.

टीपू ही थे जिन्हें अग्रेजों के शासन के खतरे को गहराई से भांपा था और इसके लिए उनहों ने अंग्रेजों से चार युद्ध भी लड़े थे. यही कारण है कि उन को देश और भारतीय उपमहाद्वीप का पहला 'फ्रीडम फाइटर' कहा जाता है.

★ टीपू ने ऑटोमन और फ्रेंच सम्राटों के पास मदद की मांग के लिए दूत भेजे.

टीपू ने 'ख्वाबनामा' नाम की एक किताब भी लिखी थी. इसमें वो अपने सपनों के बारे में लिखा करते थे. वो इन सपनों को अपनी लड़ाइयों के नतीजों से जोड़कर तुलना करते थे.

★ टीपू सुल्तान द्वारा हिंदू मंदिरों और प्रतीकों का संरक्षण...!



टीपू सुल्तान के मुख्यमंत्री 'पुरनैय्या' एक हिंदू थे, उनके दरबार में बहुत से मुख्य अधिकारी हिंदू ही थे.

टीपू ने कई हिंदू मंदिरों को संरक्षण दिया था. श्रीरंगपट्टन्नम में स्थित 'श्रीरंगनाथ का मंदिर' उनमें से एक है. 'श्रृंगेरी मठ' भी उनके संरक्षण में ही था जिसके स्वामी को उन्होंने 'जगद्गुरु' कहा...! यह गलत कहा जाता है कि टीपू बाहर से आया कोई आक्रमणकारी था बल्कि टीपू इसी धरती का बेटा था. दक्षिण भारत में वो अपने खानदान की तीसरी पीढ़ी से था. आज लोग टीपू सुल्तान के शासन की तमाम तरह से व्याख्या करते हैं. कुछ उसे हिंदुओं का संरक्षक बताते हैं तो कुछ विरोधी. कुछ इस हद तक भी चले जाते हैं कि उसे कट्टर मुस्लिम और हिंदुओं का नरसंहार करने वाला कहते हैं. पर बता दें के ये एक तथ्य है कि टीपू ने शासन के चिन्हों के रूप में बड़ी मात्रा में सूरज, शेर और हाथी का प्रयोग किया. जो साधारणत: हिंदू प्रतीक माने जाते हैं.



चलते-चलते:-



अपने वतन की आज़ादी के लिए मुहिब्बे वतन टीपू सुल्तान रहमतुल्लाह तालाअ अलय की जद्दो जहद कर्नल वेलज़ली के लिए नाक़बीले बर्दाश्त थी, गद्दार वज़ीर मीर सादिक ने समझ लिया था कि अगर टीपू के मामले में ज़रा ताख़ीर से काम लिया गया तो फिर अंग्रेजों को हिंदुस्तान से हाथ धोना पड़ेगा। 1799 में इस मुजाहिद को कुचलने के लिए गोरा फ़ौज मैसूर की सरहद में दाखिल हुई। मकर व फरेब और हक़ व सदाकत में खौफ नाक जंग छिड़ गयी, शेरे हिन्द टीपू सुल्तान रहमतुल्लाह अलय वतन की एक-एक इंच ज़मीन के लिए लड़े, आप के साथियों ने पानी की तरह खून बहाया, एक तरफ तने तन्हा टीपू सुलतान थे और दूसरी तरफ कर्नल वेलज़ली, जनरल हैरिस,जनरल स्टोर्ट, और निज़ाम की मज़बूत फौजें थी ( निज़ाम ने अंग्रेज़ो का पट्टा अपनी गर्दन में डाल लिया था ) अंग्रेज़ो ने टीपू सुल्तान को चारों ओर से घेर लिया, टीपू सुलतान किला में चक्राकार रह गए। किला को अंग्रेज़ तोपों ने बम बारी से उड़ा दिया। गोरा फ़ौज किला में घुस गई, शेरे मैसूर टीपू सुल्तान ने शदीद जमकर मुकाबला किया, और लड़ते हुवे ( 4 मई 1799 में ) वतन की आज़ादी के लिए जान दे दी। कर्नल वेलज़ली जब किला में दाखिल हुआ तो उसने देखा की एक मुजाहिद की लाश पड़ी है, जिसपर अनगिनित ज़ख़्म हैं और उसके ज़ख्मो से बहने वाला ताज़ा लहू ये कह रहा है. शहीदाने वतन की कुर्बानियां कभी रायगाँ नहीं जाती. टीपू की मौत के 220 साल बाद भी सारे इतिहासकार उन के इन प्रयोगों की सफलता पर सहमत हैं. वो मानते हैं कि आज भी टीपू के सामाजिक-आर्थिक सुधार फल-फूल रहे हैं.