अर्नब को लेकर वही ‘उद्वेलित’-जो रिया की गिरफ्तारी को ‘जस्टीफाई’ कर रहे थे

अर्नब की गिरफ्तारी के कुछ माह पूर्व रिया चक्रवर्ती की गिरफ्तारी हो चुकी है. दोनों मामले कई दृष्टियों से मिलते - जुलते हैं और भारतीय समाज में व्यापक बहस का मुद्दा बने हैं. दोनों ख्यातिप्राप्त लोग हैं. एक मिडिया की दुनिया का चमकता सितारा तो दूसरा फिल्मी दुनिया का सितारा. सापेक्षिक दृष्टि से अर्नब ज्यादा चमकते सितारे हैं. दोनों की गिरफ्तारी आत्महत्या में प्रेरक भूमिका निभाने के नाम पर हुई.



यहां इस बात की चर्चा इसलिए कि अपने देश में इस तरह की घटनाएं रोजमर्रा की बातें हैं. विधि सम्मत शासन छींजता जा रहा है. सामान्य लोग पुलिस उत्पीड़न के शिकार होते ही रहते हैं. सत्ता अपनी ताकत का बेजा इस्तेमाल करती ही रहती है, अपने खिलाफ उठी आवाज को दबाने के लिए. भीमा कोरेगांव को बहाना बना करीबन दो दर्जन बुद्धिजीवी और सामाजिक कार्यकर्ता जेल में बंद हैं. समाज का प्रभु वर्ग या बड़ा हिस्सा इन बातों से बेपरवाह है.



लेकिन रिया चक्रवर्ती या अर्नब गोस्वामी जैसे ख्यातिप्राप्त लोग, जो इस व्यवस्था के सम्मानित हिस्सा और गणमान्य नागरिक हैं, कभी कभार राजनीति के शिकार हो या सत्ता पक्ष के भीतर की गुटबाजी के शिकार हो कर पुलिसिया उत्पीड़न के शिकार होते हैं, तो कुछ ज्यादा ही हंगामा होता है. उसमें कुछ ज्यादा ही लोग रस लेने लगते हैं. सामान्य लोग, जो अपने प्रति सत्ता के व्यवहार के प्रति उदासीन ही रहते हैं, वे किसी समर्थ व्यक्ति के उत्पीड़न से ज्यादा विगलित होने लगते हैं. यह भारतीय समाज का एक बड़ा सच है.



तो, अर्नब की गिरफ्तारी को लेकर लोग परेशान हैं. उनके पक्ष विपक्ष में लोग गोलबंद हो रहे हैं. चूंकि अर्नब मीडिया से जुड़े व्यक्ति हैं, इसलिए मीडियाकर्मी कुछ ज्यादा ही उद्वेलित हैं. और चूंकि अर्नब भाजपा और संघ परिवार के चहेते थे, जिनका देश की केंद्रीय सत्ता पर कब्जा है, इसलिए सत्ता पक्ष के लोग भी. अमित शाह को समान्यतः देश में नये किस्म का फासीवाद लाने के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता है, उन्हें भी एकबारगी ‘लोकतंत्र’ की याद आ गयी और अर्नब का मामला ‘अभिव्यक्ति की आजादी पर’ हमला नजर आने लगा.



हम इसे त्रासदी ही मानते हैं कि हमारा देश एक विभाजित मानसिकता वाला देश बन चुका है. किसी भी मुद्दे पर तटस्थ और शुद्ध वैचारिक दृष्टि से मीमांसा करने में असमर्थ है. हर मुद्दे का राजनीतीकरण हो जाता है. उससे उबर कर हम किसी भी विषय पर विचार विमर्श कर ही नहीं सकते. एक ठोस उदाहरण लीजिये. जो लोग रिया चक्रवर्ती की गिरफ्तारी और उनके जेल जाने से खुश थे, उनमें से अधिकतर अर्नब वाले मामले में आहत महसूस कर रहे हैं. जो लोग- पत्रकार, बुद्धिजीवी और राजनेता- रिया चक्रवर्ती के खिलाफ कार्रवाई को उचित ठहरा रहे थे, वे अर्नब की गिरफ्तारी से उद्वेलित हैं.



क्यों?

0 रिया चक्रवर्ती के खिलाफ सुशांत सिंह ने कोई सुसाईड नोट नहीं छोड़ा था. अर्नब के खिलाफ सुसाईड नोट है और उसमें उनका नाम स्पष्ट रूप से दर्ज है. बिना किसी पुख्ता आधार के रिया को गिरफ्तार किया गया. जेल में एक महीने बंद रखा गया. अर्नब को अभी सिर्फ न्यायिक हिरासत में रखा गया है. कोर्ट में पेशी होगी और कोर्ट को जमानत देने योग्य मामला लगेगा, तो उन्हें जमानत मिल भी जायेगा.



0 यह अजीब विडंबना है कि बिना किसी पुख्ता आधार के अर्नब अपने चैनल पर रिया का मीडिया ट्रायल करते रहे. उनकी गिरफ्तारी को जस्टीफाई करते रहे. रिया को पहले सुशांत के पैसे का गबन का आरोपी बनाया, फिर हत्या की साजिश में शामिल और कुछ भी प्रमाणित नहीं हुआ तो गंजेड़ी साबित करने की कोशिश हुई. अब वही अर्नब और मीडिया में उनके समर्थक उनके साथ हुए पुलिसिया व्यवहार पर बिसुर रहे हैं.



0 क्या यह मामला किसी भी कोण से अभिव्यक्ति की आजादी का मसला नजर आता है? किस सच का उद्घाटन अर्नब कर रहे थे जिसे दबाने के लिए यह कार्रवाई हुई? वे तो वर्तमान केंद्रीय सत्ता के सबसे अधिक दुलारु पत्रकार हैं. टीवी एंकरों में सबसे अधिक मुखर और चीखने चिल्लाने वाले. अधिक से अधिक यह आरोप लगाया जा सकता है कि वे सत्ता की अंदरुनी उठा पटक के शिकार हुए. लेकिन सत्ता के भीतर की गुटबाजी के बीच उन्होंने स्वयं कभी भी तटस्थ भूमिका निभाने का प्रयास कब किया? वे तो एक पक्ष के प्रतिनिधि बन कर एंकरिंग करते नजर आते थे.



0 क्या मीडियाकर्मी को भारतीय संविधान में किसी तरह का विशेषाधिकार प्राप्त है? उन पर ठगी या अन्य आपराधिक मामले दर्ज नहीं हो सकते? हकीकत तो यह है कि पत्रकारिता आज की तारीख में तलवार की धार पर चलने के समान है. सच बोलने के लिए सत्ता और माफिया तंत्र पत्रकारों का उत्पीड़न करता है और उसकी हत्या तक कर दी जाती है. यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि अर्नब की गिरफ्तारी ऐसे मामले में हुई है जिससे पत्रकारिता की गरिमा नहीं बढ़ती है.



0 इस बात के लिए जरूर अफसोस व्यक्त किया जा सकता है कि महाराष्ट्र पुलिस की कार्रवाई बदले की कार्रवाई जैसी नजर आती है. एक मुकदमा दो वर्ष पहले उनके खिलाफ दायर हुआ. जाहिर है राजनीतिक प्रभाव से उसे बंद कर दिया गया. अब वही मुकदमा फिर से खोल कर उनके खिलाफ कार्रवई की गयी है. इससे अर्नब निर्दोष साबित नहीं हो जाते. इतना ही कहा जा सकता है कि हमारे देश में विधि सम्मत शासन नहीं चल रहा. लेकिन इस ‘सिस्टम’ को बनाने में अर्नब जैसे लोगों की ही जिम्मेदारी बनती है. उन्होंने कब इस बात के लिए संघर्ष किया कि देश में विधि सम्मत शासन हो और सत्ता पुलिसिया ताकत का गलत इस्तेमाल न कर सके.



वैसे, रिया तो रुपये के गबन या सुशांत की आत्महत्या-हत्या वाले मामले में एक तरह से दोषमुक्त हो चुकी हैं, अर्नब अभी इसी तरह के मामले में दोषमुक्त करार नहीं हुए हैं और उन्हें इस अग्नि परीक्षा से गुजरना है.