ताज़ का वह एक पल !




जब कभी ताज़महल की कोई तस्वीर देखता हूं, मेरा मन कुछ सालों पहले देखे एक दृश्य पर जाकर अटक जाता है। बात बेहद मामूली थी, लेकिन जाने क्यों वह मेरे भीतर हमेशा के लिए दर्ज़ हो गई। वह गर्मी की एक दोपहर थी। मैं ताज़ के सामने एक खाली बेंच पर बैठा उसकी भव्यता निहार रहा था। तपती गर्मी की वज़ह से भीड़ थोड़ी कम थी। मेरी दाहिनी तरफ़ एक पेड़ के नीचे प्रेमियों का एक जोड़ा मौज़ूद था। दोनों थोड़े घबडाए-से लग रहे थे जैसे उन्हें साथ देख लिए जाने का डर हो। एक दूसरे से थोड़ा अलग बैठकर वे कभी ताज को देखते और कभी एक दूसरे को। बीच-बीच में सबसे नज़रें बचाकर एक दूसरे के हाथों का स्पर्श भी कर लेते थे। देर तक यह सिलसिला चलता रहा। आसपास की भीड़ कुछ और छंटी तो वे पास खिसक आए। दोनों ने मुझपर एक नज़र डाली। मैंने जानबूझकर दूसरी तरफ नजरें घुमा ली। हालांकि कनखियों मैं उन्हें ही देख रहा था। अचानक वे दोनों लिपटे और एक दूसरे का बहुत गहरा चुम्बन लेकर झटके से अलग भी हो गए। मेरी आंखों के आगे एक रौशनी-सी तैर गई। मैं उनके सबसे पास था। उन्होंने घबडाकर मुझे ऐसे देखा जैसे वे पूछ रहे हों कि मैंने कुछ देखा तो नहीं। मैंने मुस्कुराकर उन्हें थम्स अप किया। मासूम-से दिखने वाले उस जोड़े ने शरमाकर आंखें झुका ली।



उस पल मुझे बूढ़े शाहज़हां की बहुत याद आई। अगर आज वह इस शर्मीले जोड़े के बीच एक पल को घटित हुए प्रेम को तो देख सकता तो उसे ज़रूर महसूस होता कि उसके ख़्वाब की इससे बेहतर ताबीर नहीं हो सकती थी।

dhruv gupt