सवाल राज्य की स्वायत्तता का है.






मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन और झारखंड सरकार के मंत्री रामेश्वर उरांव ने स्टेन स्वामी की गिरफ्तारी की निंदा की है. हेमंत सोरेन ने तो स्पष्ट शब्दों में कहा है कि केंद्र सरकार गरीबो-वंचितों के पक्ष में आवाज उठाने वालों की आवाज बंद करना चाहती है. रामेश्वर उरांव ने स्टेन स्वामी की गिरफ्तारी को दुर्भाग्यपूर्ण बताया है. तो क्या माना जाये कि एनआईए ने स्टेन स्वामी की गिरफ्तारी के पहले राज्य सरकार को विश्वास में लेने की जरूरत तक नहीं समझी?



क्या यह अजीब नहीं लगता कि स्टेन स्वामी माओवादी हैं या नहीं, इस बात की जानकारी न तो पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा को थी, न बाबूलाल मरांडी को, न रघुवर दास को और न वर्तमान मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को. क्योंकि यदि वे एक प्रतिबंधित संगठन के सदस्य थे तो उनके खिलाफ कार्रवाई राज्य सरकार को पहले ही करनी चाहिए थी. जाहिर है कि स्टेन स्वामी की वैसी छवि नहीं और न स्थानीय प्रशासन पुलिस ने उनकी गतिविधियों को ऐसा संदिग्ध माना.



अब एकबारगी उन्हें एक केंद्रीय जांच एजंसी द्वारा माओवादी करार देना इस बात की चुगली करता प्रतीत होता है कि भीमा कोरेगांव केस दरअसल वंचितों के पक्ष में उठी आवाजों को कुचलना मात्र है. इसका अर्थ राज्य सरकार के अधिकारों का अतिक्रमण करना भी है. राजनीतिक रूप से झारखंड में पराजित केंद्रीय सत्ता और उससे जुड़ी पार्टी राज्य सरकार को यह संकेत दे रही है कि भले ही राज्य में हमारी सरकार नहीं, लेकिन हम जब चाहे तब रोजमर्रा के तुम्हारे कार्य में हस्तक्षेप कर सकते हैं.



इसके पूर्व भी केंद्र सरकार कई मामलों में राज्य सरकार की अवहेलना करती रही है. कोल खदानों के आवंटन में उनकी मनमानी के खिलाफ राज्य सरकार कोर्ट में गयी. इस मामले में भी राज्य सरकार को मजबूती से हस्तक्षेप करना चाहिए.