,फक्कड़ कवि थे निराला






फक्कड़ कवि थे निराला

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निराला सम्भवतः हिन्दी के पहले व अन्तिम कवि हैं, जिनकी लोकप्रियता व फक्कड़पन को कोई दूसरा कवि छू तक नहीं पाया है। निराला से ज्यादा लोकप्रियता सिर्फ कबीर को मिली। यद्यपि अर्थाभाव के कारण निराला को अनेकों कठिनाईयों का सामना करना पड़ा पर न तो वे कभी झुके और न ही अपने उसूलों से समझौता किया। यही कारण है कि उन पर अराजक और आक्रमण होने तक के आरोप लगे, पर वे इन सबसे बेपरवाह अपने फक्कड़पन में मस्त रहे।



महाप्राण सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ का जन्म बंगाल के मेदिनीपुर में २१ फरवरी १८९७ को पं० रामसहाय त्रिपाठी के पुत्र रूप में हुआ था। कालान्तर में आप इलाहाबाद के दारागंज की तंग गलियों में बस गये और वहीं पर अपने साहित्यिक जीवन के तीस-चालीस वर्ष बिताए। निराला जी गरीबों और शोषितों को प्रति काफी उदार व करुणामयी भावना रखते थे और दूसरों की सहायता के प्रति सदैव तत्पर रहते थे। चाहे वह अपनी पुस्तकों के बदले मिली रायल्टी का गरीबों में बाँटना हो, चाहे सम्मान रूप में मिली धनराशि व शाल ज़रूरतमंद वृद्धा को दे देना हो, चाहे इलाहाबाद में अध्ययनरत विद्यार्थियों की ज़रूरत पड़ने पर सहायता करना हो अथवा एक बैलगाड़ी के एक सरकारी अधिकारी की कार से टकरा जाने पर अधिकारी द्वारा किसान को चाबुकों से पीटा जाना हो और देखते ही देखते निराला द्वारा उक्त अधिकारी के हाथ से चाबुक छीनकर उसे ही पीटना हो। ये सभी घटनायें निराला जी के सम्वेदनशील व्यक्तित्व का उदाहरण कही जा सकती हैं।



जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानन्दन पंत और महादेवी वर्मा के साथ छायावाद के सशक्त स्तम्भ रहे निराला ने १९२० के आस-पास कविता लिखना आरम्भ किया और १९६१ तक अबाध गति से लिखते रहे। इसमें प्रथम चरण (१९२०-३८) में उन्होंने ‘अनामिका’, ‘परिमल’ व ‘गीतिका’ की रचना की तो द्वितीय चरण (१९३९-४९) में वे गीतों की ओर मुड़ते दिखाई देते हैं। ‘मतवाला’ पत्रिका में ‘वाणी’ शीर्षक से उनके कई गीत प्रकाशित हुए। गीतों की परम्परा में उन्होंने लम्बी कविताएँ लिखना आरम्भ किया तो १९३४ में उनकी ‘तुलसीदास’ नामक प्रबंधात्मक कविता सामने आई। इसके बाद तो मित्र के प्रति, सरोज-स्मृति, प्रेयसी, राम की शक्ति-पूजा, सम्राट अष्टम एडवर्ड के प्रति, भिखारी, गुलाब, लिली, सखी की कहानियाँ, सुकुल की बीबी, बिल्लेसुर बकरिहा, जागो फिर एक बार और वनबेला जैसी उनकी अविस्मरणीय कृतियाँ सामने आयीं। निराला ने कलकत्ता पत्रिका, मतवाला, समन्वय इत्यादि पत्रिकाओं का सम्पादन भी किया। राम की शक्ति-पूजा, तुलसीदास और सरोज-स्मृति को निराला के काव्य शिल्प का श्रेष्ठतम उदाहरण माना जाता है। निराला की कविता सिर्फ एक मुकाम पर आकर ठहरने वाली नहीं थी, वरन् अपनी कविताओं में वे अन्त तक संशोधन करते रहते थे। तभी तो उन्होंने लिखा कि-



‘अभी न होगा मेरा अंत



अभी-अभी तो आया है, मेरे वन मृदुल वसन्त



अभी न होगा मेरा अन्त।’



निराला की रचनाओं में अनेक प्रकार के भाव पाए जाते हैं। यद्यपि वे खड़ी बोली के कवि थे, पर ब्रजभाषा व अवधी में भी कविताएँ ढ़ लेते थे। उनकी रचनाओं में कहीं प्रेम की सघनता है, कहीं आध्यात्मिकता तो कहीं विपन्नों के प्रति सहानुभूति व सम्वेदना, कहीं देश-प्रेम का जज्बा तो कहीं सामाजिक रूढ़ियों का विरोध व कहीं प्रकृति के प्रति झलकता अनुराग। इलाहाबाद में पत्थर तोड़ती महिला पर लिखी उनकी कविता आज भी सामाजिक यथार्थ का एक आईना है। उनका जोर वक्तव्य पर नहीं वरन चित्रण पर था, सड़क के किनारे पत्थर तोड़ती महिला का रेखाकंन उनकी काव्य चेतना की सर्वोच्चता को दर्शाता है -



वह तोड़ती पत्थर



देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर



वह तोड़ती पत्थर



कोई न छायादार पेड़



वह जिसके तले बैठी हुयी स्वीकार



श्याम तन, भर बंधा यौवन



नत नयन प्रिय, कर्म-रत मन



गुरू हथौड़ा हाथ, करती बार-बार प्रहार



सामने तरू- मल्लिका अट्टालिका, प्राकार।



इसी प्रकार राह चलते भिखारी पर उन्होंने लिखा-



पेट-पीठ दोनों मिलकर हैं एक



चल रहा लकुटिया टेक



मुट्ठी भर दाने को, भूख मिटाने को



मुँह फटी पुरानी झोली को फैलाता



दो टूक कलेजे के करता पछताता।



‘राम की शक्ति पूजा’ के माध्यम से निराला ने राम को समाज में एक आदर्श के रूप में प्रस्तुत किया। वे लिखते हैं-



होगी जय, होगी जय



हे पुरुषोत्तम नवीन



कह महाशक्ति राम के बदन में हुईं लीन।



सौ पदों में लिखी गयी ‘तुलसीदास’ निराला की सबसे बड़ी कविता है, जो कि १९३४ में लिखी गयी और १९३५ में सुधा के पाँच अंकों में किस्तवार प्रकाशित हुयी। इस प्रबन्ध काव्य में निराला ने पत्नी के युवा तन-मन के आकर्षण में मोहग्रस्त तुलसीदास के महाकवि बनने को बखूबी दिखाया है-



जागा, जागा संस्कार प्रबल



रे गया काम तत्क्षण वह जल



देखा वामा, वह न थी, अनल प्रमिता वह



इस ओर ज्ञान, उस ओर ज्ञान



हो गया भस्म वह प्रथम भान



छूटा जग का जो रहा ध्यान।



निराला की रचनाधर्मिता में एकरसता का पुट नहीं है। वे कभी भी बँधकर नहीं लिख पाते थे और न ही यह उनकी फक्कड़ प्रकृति के अनुकूल था। निराला की ‘जूही की कली’ कविता आज भी लोगों के जेहन में बसी है। इस कविता में निराला ने अपनी अभिव्यक्ति को छंदों की सीमा से परे छन्दविहीन कविता की ओर प्रवाहित किया है-



विजन-वन वल्लरी पर



सोती थी सुहाग भरी स्नेह स्वप्न मग्न



अमल कोमिल तन तरूणी जूही की कली



दृग बंद किये, शिथिल पत्ांक में



वासन्ती निशा थी।



यही नहीं, निराला एक जगह स्थिर होकर कविता-पाठ भी नहीं करते थे। एक बार एक समारोह में आकाशवाणी को उनकी कविता का सीधा प्रसारण करना था, तो उनके चारों ओर माइक लगाए गए कि पता नहीं वे घूम-घूम कर किस कोने से कविता पढ़ें। निराला ने अपने समय के मशहूर रजनीसेन, चण्डीदास, गोविन्द दास, विवेकानन्द और रवीन्द्र नाथ टैगोर इत्यादि की बंग्ला कविताओं का अनुवाद भी किया, यद्यपि उन पर टैगोर की कविताओं के अनुवाद को अपना मौलिक कहकर प्रकाशित कराने के आरोप भी लगे। राजधानी दिल्ली को भी निराला ने अपनी कविताओं में अभिव्यक्ति दी-



यमुना की ध्वनि में है गूँजती सुहाग-गाथा



सुनता है अन्धकार खड़ा चुपचाप जहाँ



आज वह ‘फिरदौस’, सुनसान है पड़ा



शाही दीवान, आम स्तब्ध है हो रहा है



दुपहर को, पार्श्व में उठता है झिल्ली रव



बोलते हैं स्यार रात यमुना-कछार में



लीन हो गया है रव शाही अँगनाओं का



निस्तब्ध मीनार, मौन हैं मकबरे।



निराला की मौलिकता, प्रबल भावोद्वेग, लोकमानस के हृदय पटल पर छा जाने वाली जीवन्त व प्रभावी शैली, अद्‌भुत वाक्य विन्यास और उनमें अन्तर्निहित गूढ़ अर्थ उन्हें भीड़ से अलग खड़ा करते हैं। वसन्त पंचमी और निराला का सम्बन्ध बड़ा अद्‌भुत रहा और इस दिन हर साहित्यकार उनके सानिध्य की अपेक्षा रखता था। ऐसे ही किन्हीं क्षणों में निराला की काव्य रचना में यौवन का भावावेग दिखा-



रोक-टोक से कभी नहीं रुकती है



यौवन-मद की बाढ़ नदी की



किसे देख झुकती है



गरज-गरज वह क्या कहती है, कहने दो



अपनी इच्छा से प्रबल वेग से बहने दो।



यौवन के चरम में प्रेम के वियोगी स्वरूप को भी उन्होंने उकेरा-



छोटे से घर की लघु सीमा में



बंधे हैं क्षुद्र भाव



यह सच है प्रिय



प्रेम का पयोधि तो उमड़ता है



सदा ही निःसीम भूमि पर।



निराला के काव्य में आध्यात्मिकता, दार्शनिकता, रहस्यवाद और जीवन के गूढ़ पक्षों की झलक मिलती है पर लोकमान्यता के आधार पर निराला ने विषयवस्तु में नये प्रतिमान स्थापित किये और समसामयिकता के पुट को भी खूब उभारा। अपनी पुत्री सरोज के असामायिक निधन और साहित्यकारों के एक गुट द्वारा अनवरत अनर्गल आलोचना किये जाने से निराला अपने जीवन के अन्तिम वर्षों में मनोविक्षिप्त से हो गये थे। पुत्री के निधन पर शोक-सन्तप्त निराला ‘सरोज-स्मृति’ में लिखते हैं-



मुझ भाग्यहीन की तू सम्बल



युग वर्ष बाद जब हुयी विकल



दुख ही जीवन की कथा रही



क्या कहूँ आज, जो नहीं कही।



१५ अक्टूबर १९६१ को अपनी यादें छोड़कर निराला इस लोक को अलविदा कह गये पर मिथक और यथार्थ के बीच अन्तर्विरोधों के बावजूद अपनी रचनात्मकता को यथार्थ की भावभूमि पर टिकाये रखने वाले निराला आज भी हमारे बीच जीवन्त हैं। मुक्ति की उत्कट आकांक्षा उनको सदैव बेचैन करती रही, तभी तो उन्होंने लिखा-



तोड़ो, तोड़ो, तोड़ो कारा



पत्थर की, निकलो फिर गंगा-जलधारा



गृह-गृह की पार्वती



पुनः सत्य-सुन्दर-शिव को सँवारती



उर-उर की बनो आरती



भ्रान्तों की निश्चल ध्रुवतारा



तोड़ो, तोड़ो, तोड़ो कारा।



[ कृष्ण कुमार यादव ]