मज़ाज़ की मशहूर नज़्म

 

शहर की रात और मैं, नाशाद-ओ-नाकारा फिरूँ

जगमगाती जागती, सड़कों पे आवारा फिरूँ



ग़ैर की बस्ती है, कब तक दर-ब-दर मारा फिरूँ

ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ



झिलमिलाते कुमकुमों की, राह में ज़ंजीर सी

रात के हाथों में, दिन की मोहिनी तस्वीर सी

मेरे सीने पर मगर, चलती हुई शमशीर सी

ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ



ये रुपहली छाँव, ये आकाश पर तारों का जाल

जैसे सूफ़ी का तसव्वुर, जैसे आशिक़ का ख़याल

आह लेकिन कौन समझे, कौन जाने जी का हाल

ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ



फिर वो टूटा एक सितारा, फिर वो छूटी फुलझड़ी

जाने किसकी गोद में, आई ये मोती की लड़ी

हूक सी सीने में उठी, चोट सी दिल पर पड़ी

ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ



रात हँस – हँस कर ये कहती है, कि मयखाने में चल

फिर किसी शहनाज़-ए-लालारुख के, काशाने में चल

ये नहीं मुमकिन तो फिर, ऐ दोस्त वीराने में चल

ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ



हर तरफ़ बिखरी हुई, रंगीनियाँ रानाइयाँ

हर क़दम पर इशरतें, लेती हुई अंगड़ाइयां

बढ़ रही हैं गोद फैलाये हुये रुस्वाइयाँ

ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ



रास्ते में रुक के दम लूँ, ये मेरी आदत नहीं

लौट कर वापस चला जाऊँ, मेरी फ़ितरत नहीं

और कोई हमनवा मिल जाये, ये क़िस्मत नहीं

ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ



मुंतज़िर है एक, तूफ़ान-ए-बला मेरे लिये

अब भी जाने कितने, दरवाज़े है वहां मेरे लिये

पर मुसीबत है मेरा, अहद-ए-वफ़ा मेरे लिए

ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ



जी में आता है कि अब, अहद-ए-वफ़ा भी तोड़ दूँ

उनको पा सकता हूँ मैं ये, आसरा भी छोड़ दूँ

हाँ मुनासिब है ये, ज़ंजीर-ए-हवा भी तोड़ दूँ

ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ



एक महल की आड़ से, निकला वो पीला माहताब

जैसे मुल्ला का अमामा, जैसे बनिये की किताब

जैसे मुफलिस की जवानी, जैसे बेवा का शबाब

ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ



दिल में एक शोला भड़क उठा है, आख़िर क्या करूँ

मेरा पैमाना छलक उठा है, आख़िर क्या करूँ

ज़ख्म सीने का महक उठा है, आख़िर क्या करूँ

ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ



मुफ़लिसी और ये मज़ाहिर, हैं नज़र के सामने

सैकड़ों चंगेज़-ओ-नादिर, हैं नज़र के सामने

सैकड़ों सुल्तान-ओ-ज़बर, हैं नज़र के सामने

ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ



ले के एक चंगेज़ के, हाथों से खंज़र तोड़ दूँ

ताज पर उसके दमकता, है जो पत्थर तोड़ दूँ

कोई तोड़े या न तोड़े, मैं ही बढ़कर तोड़ दूँ

ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ



बढ़ के इस इंदर-सभा का, साज़-ओ-सामाँ फूँक दूँ

इस का गुलशन फूँक दूँ, उस का शबिस्ताँ फूँक दूँ

तख्त-ए-सुल्ताँ क्या, मैं सारा क़स्र-ए-सुल्ताँ फूँक दूँ

ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ



जी में आता है, ये मुर्दा चाँद-तारे नोंच लूँ

इस किनारे नोंच लूँ, और उस किनारे नोंच लूँ

एक दो का ज़िक्र क्या, सारे के सारे नोंच लूँ

ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

gopal rathi