लोकतांत्रिक समाजवाद पर दृढ़ विश्वास रखने वाले लोहिया के क्रांति के बारे में अपने ही विचार थे

लोहिया एक गाँव में यात्रा पर थे और एक बच्चे पर उनकी नज़र पड़ी जो तालाब में मछली पकड़ रहा था, उन्होंने उस बच्चे से पुछा की कितना कमा लेते हो इन्हें बेच कर ? उत्तर आया की तीन से साढ़े तीन आना बचा लेते है रोज़ और फिर दोनों अपने रास्ते चल दिए। ये छोटी सी जानकारी लोहिया के अंदर खरमण्डल नाधति रही, और फिर 1963 में आया अभूतपूर्व अविश्वास प्रस्ताव तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के खिलाफ। संसद में 90 मिनट तक गूंजा लोहिया का जमीनी सच्चाई को बयान करता हुआ वो भाषण जो गुलज़ारी लाल नंदा के द्वारा दिए गए सांख्यकी के आंकडो की धज्जियां उदा रहा था। लोहिया ने 25000 रुपया प्रधानमंत्री के सुरक्षा में खर्च होने पर सीधा निशाना ताना और कहा की जिस देश में 27 करोड़ भारतीय 3 आना पर गुज़र बसर कर रहे हों उस देश में प्रधानमंत्री के कुत्ते का खर्च 3 रुपया प्रतिदिन होना शर्मनाक है। अगले दिन इंडियन एक्सप्रेस के संपादकीय में छपा "तीन आना और पंद्रह आना" वाला वो ऐतिहासिक भाषण। संसदीय शिष्टाचार के पन्नों पर वो आज भी मील का पत्थर है और साथ में ये बयान करता है की हिन्दुस्तानी भाषाओं में कितना ओज है।



लोकतांत्रिक समाजवाद पर दृढ़ विश्वास रखने वाले लोहिया के क्रांति के बारे में अपने ही विचार थे। उनके अनुसार निम्न किसी भी स्थितियों में क्रांति होती है तो उचित है।

1) अगर विद्रोह महिलाओं और पुरुषों के बीच पूर्ण समानता स्थापित करे।

2) आर्थिक, राजनितिक और सामाजिक असमानताओं के खिलाफ अगर वो त्वचा के आधार पर हो।

3) अगर विद्रोह पारंपरिक जन्म- आधारित जातीय संरचना के खिलाफ हो या वो पिछड़ो के लिए किसी विशेष पक्ष या प्रावधान के लिए हो।

4)विद्रोह अगर विदेशी हुकूमत को उखाड़ फेंकने के लिए और लोकतांत्रिक मूल्यों को स्थापित करने के लिए हो।

5)विद्रोह अगर पूंजी के संचय से उपजी असमानताओं के खिलाफ हो और आर्थिक समानता और योजनाबद्ध उत्पादन वृद्धि के लिए हो।

6) विद्रोह अगर सरकार नागरिकों के निजी जीवन में हस्तक्षेप करे और लोकतांत्रिक मूल्यों की अनदेखी करे।

7)अगर विद्रोह पारम्परिक युद्ध और परमाणु हथियारों के खिलाफ हो और सत्याग्रह को वैध हथियार बनाने की मान्यता के लिए हो।



लोहिया के दो बातों ने बहोत गहरा प्रभाव छोड़ा है मुझपर, एक जब वो कहते हैं की "जब सड़कें सुनसान हो जाती हैं, तो संसद आवारा हो जाती है" और दूसरी बात जो ज़िंदा संघर्षों को बल देती है, "ज़िंदा कौमें, 5 साल इंतज़ार नहीं करती". आज जब थरूर के एक अंग्रेजी के शब्द पर सोशल मीडिया पर खलबलाहट मच जाती है और लोग अपना ज्ञान उस तर्ज पर आंकना शुरू करते हैं तब लोहिया बीच में दीवार सरीखे खड़े होकर सिखाते है की जनभाषाओं में कैसे बात की जाती है जनसरोकार की और कैसे गढ़े जाते है जनांदोलनों के सरल शब्द। समाजवादी आन्दोलन के जनक रहे लोहिया विदेशी दक्षिणपंथ और वामपंथ को एकमुश्त ताकत से पीछे धकेलते हुए रेडिकल समाजवाद को स्थापित करते है और ठोक के कहते हैं की ये रास्ता दक्षिण और वाम के बीच का नहीं बल्कि अवाम का एकमात्र भारतीय रास्ता है। जहाँ रूसी दार्शनिक लीओन ट्रोट्स्की "संपूर्ण क्रांति" के सिद्धांत को तराशते हैं वहीँ लोहिया "स्थायी सविनय अवज्ञा" को अन्याय के खिलाफ एक शांतिपूर्ण हथियार बतौर पढ़ाते भी हैं और अपने संघर्षों में उसी से लड़ते भी हैं।



लोकतांत्रिक समाजवाद या डेमोक्रेटिक सोशलिज्म पे लोहिया युवाओं को जो मंत्र देते है वो है "कुदाल-जेल-वोट " जिसमे कुदाल प्रतिक है रचनात्मक कार्य का, जेल कहता है शांतिपूर्ण संघर्ष और वोट बताता है राजनीतिक जिम्मेदारी का निर्वाहन। लोहिया द्वारा बनायीं गयी 'सोशलिस्ट पार्टी' की सरकार पहले बार केरल में बानी थी. उस सरकार के सत्ता में रहने के दौरान एक जगह गोलीबारी हुई जिससे क्षुब्द होकर लोहिया ने अपने ही पार्टी से कहा की इस मुद्दे की नैतिक ज़िम्मेदारी लेते हुए इस्तीफा सौँपीए वरना मैं पार्टी छोड दूंगा। पार्टी दो फाड़ हो गयी लेकिन लोहिया इस बात पे डटे रहे की हमारी कथनी और करनी में फर्क नहीं होगा। लोहिया क्रिटिकल मार्क्सिस्ट भी थे और एंटी-मार्क्सिस्ट भी, उनका मानना था की जब तक समाजवाद की सही मायने में स्थापना नहीं हो जाती तब तक पिछड़े और जाती व्यवस्था में नीचे स्थान दिए गए वर्गो से प्रतिभा का आना नामुमकिन है। जब सही मायने में समाजवाद आ जाएगा तभी कला, साहित्य, दर्शन और विज्ञान मिलकर भारत का सर्वांगीण विकास कर पाएंगे। लोहिया कहते है की विज्ञान की जितनी ज़िम्मेदारी मानवता के प्रति है उतनी ही पर्यावरण के प्रति भी है। शायद यहीं शक्तियां है वैचारिक पृष्ठभूमि की जो IIT-Kanpur के प्रो जी. डी. अग्रवाल उर्फ़ स्वामी शहजानन्द सानंद को ये ताकत दे जाता है की गंगा के लिए वो संत शांतिपूर्ण आंदोलन करते हुए अपना जीवन त्याग देता है। विकास के इस अंधी दौड़ में शामिल हमलोग कई बार भूल जाते है की जो कीमत आज चुकानी पड़ रही है किसी सड़क के लिए वो सड़क जहाँ खत्म होती है उसके आगे कोई रास्ता नहीं हैं। विकास अगर नदियों, पहाडों और जंगलों के ख़त्म होने के कीमत पर आ रहा है तो हमको सोचना पड़ेगा की रुकना कहा हैं। सस्टेनेबल के नाम पर हो रहे छल को समझते हुए अपने अपने लोहिया को चुन कर संसद भेजना होगा, जरुरत पड़ने पर हर नागरिक को लोहिया से विपक्ष होने के मायने सीखने होंगे।



लोहिया दो देशों के रिश्ते पर बात करते हुए संसद में बोल उठते है की जहाँ दो नदियाँ मिलती है वो संगम तीर्थ स्थल बन जाता है इसी तरह जहाँ दो देश मिले वो सभ्यताओं का तीर्थ बने न की युद्धभूमि। मुझे पहली बार इतना बुरा किसी नेता की तस्वीर फाड़ने पर महसूस हुआ था जब 23 मार्च 2016 को लोहिया की तस्वीर मेरे हाथ से छीन कर विश्विद्यालय प्रशाशन ने फाड़ दी थी। शुक्रगुज़ार हूँ उनका की उन्होंने वो कागज़ फाड़ा और मुझे लड़ने को और पढ़ने को समाजवाद दे गए।One Nation Equal Education के कैंपेन से जुड़े 2 साल हो गए लेकिन आज तक पता नहीं था की उस कैंपेन का नारा लोहिया जी का दिया हुआ है।आज राम बिलास पासवान का लोहिया पर वक्तव्य पढ़ रहा था तो पाया लोहिया द्वारा किया गया उद्घोष:

"राष्टपति का बेटा हो या चपरासी की हो संतान,

ब्राह्मण या भंगी का बेटा, सबकी शिक्षा एक-समान"। शायद इसी तरह आज़ादी की लड़ाई और उसके बाद से आज तक चल रहे संघर्षों ने सींचा है हम सबके जीवन को लेकिन हम नहीं जान पाते की ये ताकत लड़ जाने की कहाँ से आई है। सलाम ही है उन सब नायकों को को जो आज़ाद देश में आज़ादी के मूल्य बता गए और सिखला गये की क्यों लड़ना है और किसके लिए लड़ना है और कैसे लड़ना है।



अब जो भी राजनीतिक कुशलता में दक्ष लोग है उसने लोहिया के दिए गए कुदाल, जेल और वोट में से सिर्फ वोट को चुना है। इसीलिए हम सबको अब अपने नेता को चुनने की प्रक्रिया को फिर से दुरुस्त करना होगा और छँटनी शुरू करनी होगी। लोहिया समय काल परिस्थितियों में अपने हिसाब से खुद को गढ़ते रहे हैं। लोहिया सिर्फ नेता नहीं थे लोहिया असली मायने में जन-नेता थे और हमने अपना नेता चुन लिया है आप भी चुनिए क्योंकि अकेले अकेले अब ये नदियाँ, पहाड़, पंथ-निरपेक्षता, संविधान और ये लोकतंत्र नहीं बचाया जा सकता। मुझे योगेन्द्र में वो नेता दिखता है और मैंने अपना लोहिया चुन लिया है। आप भी अपना लोहिया चुन लीजिये वरना समाजवाद अब मर्सडीज़ और लाखों की टाइल्स तक सीमित रह गया है और धीरे धीरे आने की जगह ख़त्म होता जा रहा है।



दिवाकर सिंह शोध छात्र IIT BHU