लोग अब सांप्रदायिक कहे जाने के भय से 'जय श्री राम' कहने में भी संकोच का अनुभव करते हैं।






जय लंकेश

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लंकेश, यदि आज्ञा हो तो मैं रामभक्त हनुमान आज आपसे एक प्रश्न करने का साहस करूं ? सहस्त्रों वर्षों से अधर्म और अहंकार का प्रतीक मानकर आपका दहन होता रहा है, फिर भी आपकी स्वीकार्यता घटने की जगह निरंतर बढती ही क्यों जा रही है ? त्रेता में आप छोटे से लंका के राजा थे, कलियुग में आप सारी दुनिया के अधिपति हैं। भारत सहित सभी देशों के शासक आपके ही पदचिन्हों पर चल रहे हैं। मंदिर आपके भले ही इक्का-दुक्का हों, संसार की तीन चौथाई से ज्यादा आबादी के ह्रदय में आप विराजमान हैं। संसार के समस्त धर्मों के आचार्य आपका ही अनुशरण कर रहे हैं। अपनी तमाम धर्मपरायणता, मानवीयता, त्याग, सदाचारिता और विनम्रता के बाद भी लोकप्रियता की दृष्टि से प्रभु राम आपकी स्पर्द्धा में कहीं नहीं ठहरते। भारत भूमि पर उनके मंदिर भी अब गिनती के ही बच गए हैं। उनके ही देश के राजनेताओं ने सत्ता की राजनीति में उन्हें ऐसा लपेटा है कि लोग अब सांप्रदायिक कहे जाने के भय से 'जय श्री राम' कहने में भी संकोच का अनुभव करते हैं। मुझ अकिंचन के नाम पर मंदिर तो बहुत बने हैं, लेकिन मेरा उपयोग लोग भक्ति और मुक्ति के लिए कम, सरकारी भूमि के अतिक्रमण और भूत-प्रेत भगाने में ज्यादा करते हैं। इधर आप हैं कि प्रभु राम के हाथों परमगति को प्राप्त होने के युगों बाद भी कोटि-कोटि लोगों की सोच पर कुंडली मारकर बैठे हैं।



हे दशानन, आपको प्रसन्न करने के लिए मैं आज श्री लंका के पर्वतों की स्वादिष्ट चाय ले आया हूं। मलाई मारके ! यह केतली वही है जिसमें भारत भूमि के वर्तमान धर्मनिष्ठ सम्राट अपने बचपन के दिनों में चाय बेचते थे। कप हमारे यशस्वी वित्त मंत्री का रहस्यमय पात्र है जो प्रजा का रक्त निचोड़ लेने के बाद भी कभी नहीं भरता।आपको मेरे प्रभु राम की सौगंध है, दशहरा में अपने ही अनुयायियों के हाथों दहन से पूर्व अपने अमरत्व के रहस्य से आज परदा उठा ही दीजिए !



© ध्रुव गुप्त
Dhruv Gupt