जेपी -लोहिया महात्मा गांधी के अंशावतार
अगर बीसवीं सदी के दो नायकों जयप्रकाश नारायण और डा राम मनोहर लोहिया को इक्कीसवीं सदी में थोड़ी मिथकीय शब्दावली में याद किया जाए तो कहा जा सकता है कि वे दोनों महात्मा गांधी के अंशावतार थे। वे गांधी तो नहीं थे लेकिन उनके बिना आजाद भारत में गांधी को समझ पाना कठिन है। आजाद भारत में भ्रष्टाचार विरोधी और तानाशाही विरोधी लोकतांत्रिक आंदोलनों को इतनी ऊंचाई न मिल पाती अगर इतने बड़े नैतिक कद के यह दो नेता न होते। वे निश्चित तौर पर गांधी की विरासत के असली दावेदार थे। हालांकि डा लोहिया ने स्वयं डा भीमराव आंबेडकर को गांधी के बाद का भारत का सबसे बड़ा नेता माना है और कहा भी है कि उनके होने से यह विश्वास होता है कि भारत से जाति व्यवस्था समाप्त हो जाएगी। लेकिन इतिहास जो है वही होता है न कि जैसा हम सोचते हैं वैसा। हालांकि इतिहास का बड़ा हिस्सा तथ्यों से ज्यादा आपकी व्याख्याओं पर निर्भर करने लगा है। ऐसे में आज जेपी और लोहिया की फिर से नई व्याख्याओं की जरूरत है।

गांधी और उनके इन दोनों अनुयायियों में फर्क यह है कि गांधी धर्म से राजनीति की ओर यात्रा करते हैं जबकि दोनों पश्चिमी अकादमिक ज्ञान से भारतीयता के धर्म और अध्यात्म की ओर यात्रा करते हैं। गांधी सत्य और अहिंसा के सार्वभौमिक मूल्यों के बीच भारतीय राष्ट्रीयता को स्थापित करते हैं जबकि जेपी और लोहिया मार्क्सवाद और समाजवाद की अंतरराष्ट्रीय राजनीति और अर्थशास्त्र के मध्य गांधी के स्वाधीनता संग्राम के प्रभाव में राष्ट्रीय मुक्ति संग्राम और उससे आगे लोकतंत्र का खाका तैयार करते हैं। गांधी लंदन में अपनी पढ़ाई के दौरान एडविन अर्नाल्ड की गीता—`द सांग सेलेस्टियल’ पढ़कर उस ग्रंथ से अपना रिश्ता बनाते हैं जो आजीवन उनके संघर्ष की प्रेरक और सत्य के ज्ञान की सर्वश्रेष्ठ पुस्तक बनी रही। गांधी ने बुद्ध के जीवन पर आधारित अर्नाल्ड की किताब `द लाइट आफ एशिया’ से भी वहीं परिचित होते हैं और वहीं वे न्यू टेस्टामेंट से `सरमन आन द माउंट’ का सिद्धांत निकालते हैं जो आजीवन उनके अहिंसा का आधार रहा।

इसके ठीक विपरीत जयप्रकाश नारायण अपनी युवा अवस्था में बंगाल के क्रांतिकारियों और तिलक महराज से प्रभावित होते हुए उनके और गांधी के आह्वान के बीच झूलते हैं। बीस साल की उम्र में वे अमेरिका पढ़ने जाते हैं और वहां कठोर श्रम करते हुए समाजशास्त्र में एम.ए. की डिग्री हासिल करते हैं। सड़क से बर्फ साफ करने, होटल का बाथरूम धोने, फैक्ट्री में नट बोल्ट बनाने, रेस्तरां में वेटर बनने, फर्नीचर की पालिश करने और खेतों में मजदूरी करने से लेकर ऐसा कोई काम नहीं है जो वहां अपना खर्च निकालने के लिए जेपी नहीं करते। यहीं उनके शिक्षकों द्वारा उन्हें जेपी नाम मिलता है और ओहियो विश्वविद्यालय में अपने यहूदी मित्र अवराम लैंडी की प्रेरणा से मार्क्सवादी बनते हैं। अगर इस बीच उनकी मां बीमार न हुई होतीं और उन्हें भारत न आना पड़ता तो वे सोवियत संघ जा चुके होते।

उधर लोहिया अपने पिता के कारण गांधी का प्रभाव जरूर महसूस करते हैं लेकिन जर्मनी के हमबोल्ट विश्वविद्यालय में मार्क्सवादी और समाजवादी साहित्य का गंभीर अध्ययन करते हैं। उनके गाइड बर्नर सोमबर्ट उस समय यूरोप के नामी समाजवादी चिंतक थे और उनकी प्रेरणा से भारत के प्रथम स्वाधीनता संग्राम में लोहिया की रुचि पैदा होती है। लेकिन एक बात तय है कि अपने युवावस्था में गांधी की नैतिकता और उनके स्वाधीनता संघर्ष के प्रभावित होने के बावजूद जेपी और लोहिया दोनों अहिंसा में विश्वास नहीं करते थे। वे आजादी को पाने और भारत में समाजवादी व्यवस्था लागू करने के लिए बोल्शेविक क्रांति के माडल पर किसी बड़े परिवर्तन के बारे में सोचते थे। उन्हें गांधी के उपवास जैसे उपायों से बहुत सहमति नहीं थी। लेकिन उन्होंने भारत में आकर कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता नहीं ली बल्कि गांधी के नेतृत्व में सक्रिय कांग्रेस से ही जुड़ना पसंद किया। इन समाजवादियों की यही विशेषता था कि वे अंतरराष्ट्रीय स्थितियों और विचारधाराओं की समझ रखते हुए भी समाजवाद को भारतीय स्थितियों में लागू करना चाहते थे और उससे पहले राष्ट्रीय मुक्ति के लक्ष्य को प्राप्त करना चाहते थे।

वे भारत आजाद होने के बाद नेहरू सरकार के समाजवाद से अपने को नहीं जोड़ पाए और उस पर निरंतर सवाल करते हुए भारत को लोकतंत्र और समाजवाद के रास्ते पर ले जाने के लिए संघर्ष करते रहे। जब तक देश आजाद नहीं हुआ था तब तक कांग्रेस में समाजवादी नीतियों के समावेश के लिए 1934 में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी बनाकर वहां प्रभाव पैदा करते रहे और कभी कभी गांधी से भी टकराते रहे। गांधी राज्य की शक्ति द्वारा समाजवाद लाने के उनके माडल और सर्वहारा की तानाशाही में एकदम यकीन नहीं करते थे। गांधी राज्य के दबाव में समाज में बदलाव लाने के बजाय नैतिक शक्ति से जनता का हृदय परिवर्तन करना चाहते थे। लेकिन गांधी जेपी और लोहिया की देशभक्ति देखकर उनकी हिंसा के लिए उन्हें दोष देने के बजाय अंग्रेज सरकार को दोष देते थे।

गांधी ने अपने राजनीतिक जीवन के आरंभ से ही अहिंसा का सूत्र पकड़ लिया था और दक्षिण अफ्रीका से इसी विश्वास के साथ आए थे कि जिस सत्याग्रह से उन्हें वहां सफलता मिल सकती है उस रास्ते पर चल कर भारत में क्यों नहीं मिल सकती। जबकि जेपी और लोहिया अमेरिका और यूरोप से क्रांति की वेगमयी विचारधारा लेकर आए थे जो गांधी के प्रभाव में भारतीय हो गई। हालांकि यह कहना कठिन है कि गांधी के भारत छोड़ो आंदोलन पर गांधी का ज्यादा प्रभाव था या जेपी और लोहिया का। नेतृत्व तो गांधी का जरूर था लेकिन उसके भीतर अंग्रेजी सत्ता के विरोध का जो तेवर था वह बिल्कुल समाजवादी था। उधर जेपी और लोहिया दोनों ने 15 अगस्त 1947 को आजादी का जश्न नहीं मनाया था और सरकारी समारोह से दूर कोलकाता, बिहार और दिल्ली की बस्तियों में दंगा शांत कराने में लगे थे।

जेपी और लोहिया आजाद भारत में जितने दिन जिए भारतीय संदर्भों में क्रांति का कोई दर्शन और उसके लिए उपकरण की तलाश करते रहे। इस दौरान उन्होंने वर्ग विभेद और जातिभेद खत्म करने लगातार कोशिशें कीं लेकिन हर प्रकार की तानाशाही का विरोध करते रहे। वे अगर स्त्रियों के अधिकार के लिए लड़ते रहे तो कश्मीर और पूर्वोत्तर भारत के शांतिपूर्ण समाधान के लिए प्रयास करते रहे। गांधी की उलाहना के बाद वे सर्वहारा की तानाशाही के सिद्धांत पर अविश्वास करने लगे थे और सोवियत संघ में कम्युनिस्ट नेताओं की यातना के बाद तो उसे त्याग ही दिया। लोहिया आजाद भारत में भी नागरिक स्वतंत्रता के लिए सदैव संघर्षरत रहे और नेहरू और इंदिरा के नेतृत्व में कांग्रेस के एकाधिकार के विरुद्ध विकल्प खड़ा करने के लिए गैरकांग्रेसवाद की रणनीति बना डाली। इस दौरान उन्होंने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और जनसंघ के साथ भी तालेमल बिठाया जिसके कारण उनकी आज तक आलोचना की जाती है। जेपी ने भले ही जनसंघ के साथ 1974 में आंदोलन छेड़ा लेकिन उन्होंने पीयूसीएल की भी स्थापना की जिसका लक्ष्य नागरिक अधिकारों की हिफाजत थी जिसके लिए जनसंघ और भाजपा में सरोकार नहीं है।

जेपी और लोहिया ने समाजवादी क्रांति के मार्ग से चलकर गांधी के सत्य और अहिंसा का मार्ग अपनाया। लेकिन इस मार्ग पर चलते हुए उन्होंने समता और समृद्धि के लक्ष्य को छोड़ा नहीं था। उनकी समता और समृद्धि में स्वतंत्रता और भाईचारा का लक्ष्य भी शामिल था। जेपी और लोहिया गांधी के अंधभक्त नहीं थे। वे उनके अनुयायी बने लेकिन उनसे निरंतर टकराते हुए। उनके गांधी के निकट आने का कारण गांधी की देशभक्ति और उदारदृष्टि थी। गांधी की सांप्रदायिक सद्भाव की भावना उन्हें आकर्षित करती थी। लेकिन जेपी और लोहिया गांधी मार्ग पर चलने के प्रयास में स्वयं ही नहीं बदले उन्होंने गांधी को भी बदला। पहले कांग्रेस पार्टी ने समाजवाद के कार्यक्रमों को अपनाया और बाद में गांधी ने समाजवाद यानी समता की आवश्यकता की जरूरत को स्वीकार किया। गांधी अगर आंबेडकर से टकराते हुए एक वर्ण में विश्वास करने लगे थे तो समाजवादियों से बहस करते हुए ट्रस्टीशिप के दर्शन पर आए। यहां अगर दलविहीन लोकतंत्र की बात करते हुए जेपी गांधी के ज्यादा करीब जाते हैं वहीं लोहिया बहुदलीय और प्रतिस्पर्धात्मक राजनीति में उतरते हुए यूरोपीय लोकतंत्र का भारतीयकरण करते हैं। आज जेपी और लोहिया के गांधीमार्ग पर ज्यादा बहस की जरूरत है क्योंकि दुनिया में असमानता बढ़ रही है और लोकतंत्र पर खतरे मंडरा रहे हैं और नागरिक अधिकारों की निरंतर उपेक्षा हो रही है।

 

अरुण कुमार त्रिपाठी