डॉ लोहिया ने अपने समय मे न केवल जुझारू जनांदोलन में पगे नेताओ को ही तैयार किया बल्कि बुद्धिजीवियों की एक सशक्त जमात भी तैयार की



डॉ रामनोहर लोहिया को याद करते हुए.



आज 12 अक्टूबर, देश के प्रखर समाजवादी चिंतक, स्वाधीनता संग्राम के महान योद्धा और भारत छोड़ो आंदोलन के नायक तथा और जुझारू नेता डॉ राममनोहर लोहिया की पुण्यतिथि है। डॉ लोहिया का दुःखद निधन आज ही के दिन दिल्ली के वेलिंगटन हॉस्पिटल में हुआ था। बाद में उन्हीं की स्मृति में, इस वेलिंगटन हॉस्पिटल का नाम बदल कर डॉ राम मनोहर लोहिया अस्पताल कर दिया गया।



सड़क और संसद, दोनो में समान ऊर्जा और प्रतिभा से लबरेज़ डॉ लोहिया आज़ादी के बाद, देश के युवाओं के सबसे चहेते और लोकप्रिय नायक बन गए थे। 57 साल की उम्र में जब लोहिया की देश को सबसे अधिक ज़रूरत थी, तब वे अपनी अनंत यात्रा पर कूच कर गए। अर्थनीति के वे विशेषज्ञ थे और सत्ता के विरोध के रूप में वे गैरकांग्रेसवाद के सिद्धांतकार के रूप में देखे जाते हैं।



डॉ लोहिया 1937 में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के रूप में कांग्रेस से अलग होने वाले धडे के प्रमुख नेता रहे हैं। आचार्य नरेन्द्रदेव, जयप्रकाश नारायण और डॉ लोहिया की त्रयी ने देश मे समाजवादी आंदोलन की एक सशक्त धारा का सूत्रपात किया था। जहां आचार्य नरेन्द्र देव एक सिद्धांतकार के रूप में सामने आते हैं, वही डॉ लोहिया जनांदोलन की राह से अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते रहने के पक्षधर थे।



यह त्रयी अकेले नही थी। इसके साथ अशोक मेहता, अच्युत पटवर्धन, मीनू मसानी जैसे और नेता भी थे। पर समाजवाद और जनांदोलन की राह पर अंत मे डॉ लोहिया ही शेष बचे थे। आचार्य नरेंद्र देव अकादमिक जगत में चले गए, अशोक मेहता सरकार के साथ चले गए, मीनू मसानी ने आश्चर्यजनक रूप से सामंती और घोषित पूंजीवादी दल स्वतंत्र पार्टी की राह पकड़ी, जेपी, डॉ लोहिया के शब्दों में मठी गांधीवादी हो गयी और डॉ लोहिया, टूटते रहे और सुधरते रहे। पर इतिहास में डॉ लोहिया की यह अदम्य जिजीविषा ने उन्हें लगातार प्रासंगिक बनाये रखा।



डॉ लोहिया एक विलक्षण नेता थे। केरल में उन्होंने अपनी ही पार्टी के समर्थन से बनी थानुपिल्लै सरकार को केवल इस बात पर गिरा दिया कि, केरल सरकार ने छात्रों के एक आंदोलन पर गोली चलवा दी थी। आंदोलनों की राह से निकले डॉ लोहिया को यह कृत्य बर्बर और अमानुषिक लगा और उन्होंने अपना समर्थन वापस ले लिया। पार्टी टूट गयी। पर लोहिया नहीं टूटे। उन्होंने एक नयी पार्टी खड़ी कर ली और 1967 के लोकसभा चुनाव में उनके नेतृत्व में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी संसोपा जिसका चुनाव चिह्न बरगद था ने अपनी प्रभावी उपस्थिति दर्ज करायी। पर 12 अक्टूबर 1967 को यह बरगद ढह गया और इससे समाजवादी आंदोलन को बहुत क्षति हुयी।



सड़क और संसद दोनो की ही देश मे अपनी भूमिकाएं है। संसद जहां एक जाग्रत विपक्ष द्वारा सरकार पर वैधानिक रूप से अंकुश रखने के एक उपकरण के रूप में है वहीं सड़कें जनांदोलन के प्रतीक के रूप में उनके अनुसार सदैव जाग्रत बनी रहनी चाहिए। डॉ लोहिया कम ही समय तक सांसद रहे। वे 1952, 57 और 62 के चुनाव हार गए थे। पर 1963 में फर्रुखाबाद से लोकसभा का एक उपचुनाव जीत कर संसद में पहुंचे थे।



लोकसभा में लोहिया के नाम से 17 खंडों मे काशी विद्यापीठ के प्रोफेसर कृष्णनाथ ने उनके लोकसभा में दिए गए भाषणों और बहसों का संकलन किया है, जिससे इनकी संसदीय क्षमता और मेधा का पता चलता है। उनकी लेखनी समसामयिक राजनैतिक विषयो पर ही नहीं, बल्कि देश की सांस्कृतिक पीठिका पर भी मौलिकता के साथ चली। राम, कृष्ण, शिव पर उनके लिखे लेख पढ़ने लायक हैं।



इतिहास चक्र, भारत विभाजन के अपराधी, जैसी गम्भीर पुस्तकों के अलावा उन्होंने मार्क्स गांधी औऱ सोशलिज़्म के नाम से एक अकादमिक ग्रँथ भी लिखा है, जो समाजवाद की उनकी अवधारणा को रेखांकित करता है। गैरकांग्रेसवाद के नाम पर तत्कालीन जनसंघ जो तब बिल्कुल ही हाशिये पर थी और वैचारिक रूप से तब भी कुंद थी को राजनीति की मुख्य धारा में लाकर देश के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को प्रदूषित करने का भी आरोप उन पर कुछ राजनीतिक समीक्षक लगाते है। पर डॉ लोहिया इसे एक बड़े लक्ष्य को पाने के लिये छोटे मोटे सैद्धांतिक समझौते करने की रणनीति के अंतर्गत देखते हैं।



भारत पाक के बंटवारे को वह नक़ली बंटवारा मानते थे और उस दुःखद त्रासदी को रोक न पाने के लिये उन्होंने अपनी किताब, भारत विभाजन के अपराधी में, तत्कालीन नेताओ, जिनमे गांधी भी थे की आलोचना की है। उन्होंने कहा था कि धर्म के आधार पर हुआ यह बंटवारा लम्बे समय तक नहीं चल पाएगा और उनकी यह भविष्यवाणी सच भी हुयी। धर्म के आधार पर बना पाकिस्तान, भाषा और संस्कृति के मुद्दे पर टूट गया और उनके देहांत के चार साल बाद ही बांग्लादेश का उदय हो गया।



डॉ लोहिया का शीघ अवसान, देश के समाजवादी आंदोलन के लिये घातक सिद्ध हुआ और सुधरो या टूटो के सिद्धांत के आधार पर यह आंदोलन टूट कर बिखरता तो रहा, पर किसी सक्षम वैचारिक और बहुमान्य नेतृत्व के अभाव में सुधरने की नौबत कम ही आयी। डॉ लोहिया ने अपने समय मे न केवल जुझारू जनांदोलन में पगे नेताओ को ही तैयार किया बल्कि बुद्धिजीवियों की एक सशक्त जमात भी तैयार की जिन्होंने इस आंदोलन को आगे बढ़ाया।



आज उन्हीं डॉ रामनोहर लोहिया की पुण्यतिथि है। उनकी स्मृति को प्रणाम और उनका विनम्र स्मरण। यह वाक्य डॉ लोहिया ने ही कहा था कि, 'ज़िंदा कौमे पांच साल इंतजार नहीं करती हैं', और खामोश सड़क संसद को आवारा बना देती है।



विजय शंकर सिंह
Vijay Shanker Singh