दो गज जमीन के मोहताज हैं बहादुरशाह जफर !






आजादी के सत्तर साल बाद भी

दो गज जमीन के मोहताज हैं बहादुरशाह जफर !



बहादुरशाह जफर सच्चे देशभक्त ही नहीं, अपने वक्त के नामवर शायर भी थे। उन्होंने गालिब, दाग, मोमिन, जौक जैसे उर्दू शायरों को हौसला दिया। गालिब तो उनके दरबार में शायरी करते थे। उन दिनो उर्दू शायरी अपनी बुलंदियों पर थी। जफर की मौत के बाद उनकी शायरी कुल्लियात-ए-जफर के नाम से संकलित हुई। वर्ष 1857 में बहादुर शाह जफर एक ऐसी शख्सियत थे, जिनका बादशाह के तौर पर ही नहीं एक धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति के रूप में भी सम्मान था। मेरठ से विद्रोह कर, जो सैनिक दिल्ली पहुंचे, उन्होंने सबसे पहले बहादुर शाह जफर को अपना बादशाह माना। बहादुर शाह जफर ने अंग्रेजों की कैद में रहते हुए भी गजलें लिखना नहीं रोका। वह जली हुई तिल्लियों से जेल की दीवारों पर गजलें लिखते थे। उनका जन्म 24 अक्तूबर, 1775 में हुआ था। पिता अकबर शाह द्वितीय की मृत्यु के बाद उनको 18 सितंबर, 1837 में मुगल बादशाह बनाया गया। यह दीगर बात थी कि उस समय तक दिल्ली की सल्तनत बेहद कमजोर हो गई थी और मुगल बादशाह नाममात्र का सम्राट रह गया था।



प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने की बहादुर शाह जफर को भारी कीमत चुकानी पड़ी। उनके पुत्रों और प्रपौत्रों को ब्रिटिश अधिकारियों ने सरेआम गोलियों से भून डाला। अंग्रेजों ने जुल्म की सभी हदें पार कर दीं। जब बहादुर शाह जफर को भूख लगी तो अंग्रेज उनके सामने थाली में परोसकर उनके बेटों के सिर ले आए। उन्होंने अंग्रेजों को जवाब दिया कि हिंदुस्तान के बेटे देश के लिए सिर कुर्बान कर अपने बाप के पास इसी अंदाज में आया करते हैं। उन्हें बंदी बनाकर रंगून ले गए, जहां उन्होंने सात नवंबर, 1862 में एक बंदी के रूप में दम तोड़ दिया। उन्हें वहीं दफ्ना दिया गया। देश से बाहर रंगून में भी उनकी उर्दू कविताओं का जलवा रहा। आज भी कोई देशप्रेमी व्यक्ति जब तत्कालीन बर्मा (म्यंमार) की यात्रा करता है तो वह जफर की मजार पर जाकर उन्हें श्रद्धांजलि देना नहीं भूलता है। उनके दफन स्थल को अब बहादुर शाह जफर दरगाह के नाम से जाना जाता है।



मरते दम तक बहादुरशाह जफर को हिंदुस्तान की फिक्र रही। उनकी अंतिम इच्छा थी कि वह अपने जीवन की अंतिम सांस हिंदुस्तान में ही लें और वहीं उन्हें दफनाया जाए लेकिन अंग्रेजों ने ऐसा नहीं होने दिया। उनके जैसे कम ही शासक रहे, जो अपने देश को महबूब की तरह चाहते थे। जब रंगून में कारावास के दौरान अपनी आखिरी सांस उन्होंने ली तो शायद उनके लबों पर अपनी ही यह मशहूर गजल कितनी तकलीफ देती रही होगी। अपने वतन से तन्हाई के उन्हीं दिनो में उन्होने लिखा था -



लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार में,



किस की बनी है आलम-ए-नापायदार में।



बुलबुल को बागबां से न सैयाद से गिला,



किस्मत में कैद लिखी थी फसल-ए-बहार में।



कह दो इन हसरतों से, कहीं और जा बसें,



इतनी जगह कहाँ है दिल-ए-दाग़दार में।



एक शाख गुल पे बैठ के बुलबुल है शादमान,



कांटे बिछा दिए हैं दिल-ए-लाल-ए-ज़ार में।



उम्र-ए-दराज़ माँग के लाये थे चार दिन,



दो आरज़ू में कट गये, दो इन्तेज़ार में।



दिन ज़िन्दगी खत्म हुए शाम हो गई,



फैला के पांव सोएंगे कुंज-ए-मज़ार में।



कितना है बदनसीब 'ज़फर' दफ्न के लिए,



दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में।



कहा जाता है कि प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद जब बादशाह जफर को गिरफ्तार किया गया तो उर्दू जानने वाले एक अंग्रेज सैन्य अधिकारी ने उन पर कटाक्ष करते हुए कहा- 'दम में दम नहीं, अब खैर मांगो जान की ए जफर, अब म्यान हो चुकी है, शमशीर हिन्दुस्तान की!' इस पर जफर ने करारा जवाब देते हुए कहा था- 'हिंदीओ में बू रहेगी जब तलक इमान की, तख्ते लंदन तक चलेगी तेग हिन्दुस्तान की!' रंगून में उन दिनो सुभाषचंद्र बोस ने बहादुर शाह ज़फर की क़ब्र को पूरी इज़्ज़त दिलवाई थी। ज़फर की कब्र को नेताजी ने पक्का करवाया। वहाँ कब्रिस्तान में गेट लगवाया और उनकी क़ब्र के सामने चारदीवारी बनवाई। आज दिल्ली में बहादुर शाह जफर मार्ग पर दिल्ली गेट के निकट उनकी स्मृतियां जीवित हैं। यह दिल्ली के बचे हुए 13 ऐतिहासिक दरवाजों में से एक है। यही वह दरवाजा है, जहां अंतिम मुगल बादशाह जफर के दोनों बेटों और एक पोते को अंग्रेजों ने गोली से उड़ाया था।