विश्वासघात की राजनीति और सुशासन बाबू
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बिहार के राजनीतिक रंगमंच पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का खेल 2015 में ही खत्म हो गया था. तब बीजेपी व एनडीए उनके पीछे पड़ी थी और उनके द्वारा ही बनाए गए "डम्मी मुख्यमंत्री" जीतनराम माझी भी भाजपा के खेमे में जाकर उनकी विरासत को चुनौती दे रहे थे. उस समय आरजेडी प्रमुख लालू प्रसाद यादव ने नीतीश को शरण देकर उनकी "राजनीति" को बचा लिया था.
तब के सुशासन बाबू और आज के नीतीश यानी "पलटूचाचा" के भाषणों का अवलोकन करिए तो स्थिति स्पष्ट हो जाएगी. यही भारतीय राजनीति की त्रास्दी भी है. तब "आम खाने की राजनीति" खूब अखबारों की सुर्खियां बटोरी थी. पीएम मोदी ने कहा था कि दलित की थाली उसके सामने से छीनी जा रही है. उसे मुख्यमंत्री आवास के परिसर में लगे आम को खाने से रोका जा रहा है. अब "माझी का आम" कहां है, इसे कोई नहीं पूछ रहा है. हालांकि यह आम का मौसम नहीं है.
2015 में हुए विधानसभा चुनाव के बाद पुन: नीतीश मुख्यमंत्री बने लेकिन दो साल बाद वे बीजेपी की गोद में जाकर बैठ गए. विश्वासघात..! जी, हां इसे ही विश्वासघात की राजनीति कहते हैं. और आज स्थिति यह है लोक जनशक्ति पार्टी के चिराग पासवान के वे दुश्मन नम्बर एक बन गए हैं. बीजेपी भी उनसे अपना पीछा छुड़ाने के लिए "चिरागी राजनीति" को हवा दे रही है. दरअसल राजनीति में विश्वसनीयता सबसे बड़ी चीज होती है. व्यक्तिगत जीवन में भी "विश्वसनीयता" का अपना महत्व है. इसे खोने का मतलब है कि आपकी शून्य की तरफ जाने की यात्रा शुरू हो गई है.
पीएम मोदी और सीएम नीतीश दोनों पर यह बात लागू होती है. दोनों अपने भाषणों से जनता का भरोसा गंवा चुके हैं. उनके पुराने भाषणों को सुनकर इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है. अब वे कबूतर, तोता मोर, मैना को दाना चुगा रहे हैं. उनके "अच्छे दिन" अब सबके दरवाजे पर दस्तक देेने लगे हैं. उनके कहने पर ताली-थाली बजाने वाले भी इससे बचे नहीं है. उनका भी मोहभंग हो रहा है.
बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालूप्रसाद यादव ने 2015 में जो किया था, उसी का परिणाम है कि 2020 में नीतीश महागठबंधन के नेता तेजस्वी को अपनी सभाओं में ललकार रहे हैं. इस "ललकार" में वह भाषा की मर्यादा भी भूल गए हैं. कभी नीतीश प्रधानमंत्री पद के दावेदार थे और बिहार में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के रैली करने के बाद अभी वे दिल्ली जाने के रास्ते में ही रहते थे कि इधर प्रेस कांफ्रेंस करके बिंदुवार उनकी बातों की खिल्ली उड़ते थे.
वही नीतीश अब भाजपा की गोद में बैठकर तेजस्वी से पूछ रहे हैं कि दस लाख लोगों को नौकरी दोगे तो उन्हें वेतन देने के रुपये कहां से लाओगे ? जब वे यह सवाल करते हैं तो यह भूल जाते हैं कि भाजपा 19 लाख लोगों को रोजगार देने का वादा कर रही है और पीएम मोदी प्रतिवर्ष दो करोड़ लोगों को नौकरी देने का वादा कर चुके हैं.
ऐसा लगता है कि बिहार चुनाव के बाद जदयू की राजनीति खत्म हो जाएगी और इस पार्टी का विलय भाजपा में हो जाएगा. क्योंकि दोनों की राजनीतिक सोच एक है तो फिर अलग पार्टी चलाने का कोई सवाल ही नहीं है और इसके साथ ही प्रधानमंत्री बनने के नीतीश के सपने का भी अंत हो जाएगा. यही भाजपा चाहती भी थी. इधर, उत्तर प्रदेश में बसपा सुप्रीमो मायावती की भी राजनीति अंधेरी गलियों में भटकने लगी है. उनका बयान आया है कि समाजवादी पार्टी से लड़ने के लिए वह भाजपा से हाथ मिलाने को तैयार हैं.![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgNrA8dKyLikGfN3t20E_TEa2tFVLuSGhT1G57HJLngMqslwrXq986DXGrnBhtkt9YmZB3KAy5ozLdbIWHjOOk-6K-ASpic9HKJNe-jqfzKEWwHv3M5GZj_noOIqMVojn8nrwtMzbRm1vc/)
उत्तर प्रदेश की राजनीति में मायावती सिर्फ एक जातीय गिरोह की नेता बनकर रह जाएंगी. भाजपा के पाले में जाने के कारण मुस्लिम भी उनसे अलग हो जाएंगे. उधर, बिहार में मायावती ओवैसी के साथ गठबंधन करके "ग्रैंड वोटकटवा" का भूमिका में आ गई हैं. अब उनकी राजनीति का भी पर्दाफाश हो चुका है. धीरे-धीरे मायावती भी नीतीश कुमार की ही तरह भाजपा के खेमे में जा रही हैं. इसके पीछे उनकी अपनी सम्पत्ति बचाने और सीबीआई व ईडी के चक्कर में न फंसने की मजबूरियां हैं. भाजपा की यही रणनीति है, पहले वह नेताओं को डरवाती है और फिर उन्हें अपने पाले में लाकर उनका "शुद्धिकरण" कर देती है.
लगता है कि नीतीश की जयदयू और मायावती की बसपा अब धीरे-धीरे बसपा की गोद में खेलते हुए अपने दल को उसी में मर्ज कर लेंगे. इस कोरोनाकाॅल में सिर्फ लोगों की जीवनशैली ही नहीं बदली है बल्कि इसका असर राजनीतिक दलों की कार्यपद्धति पर भी पड़ेगा. कोरोना से पहले और कोरोना के बाद के राजनीतिक समीकरण में बहुत कुछ बदलाव होने की संभावना है. जिसके संकेत भी अब मिलने लगे हैं.
जातीय आधार पर राजनीति करने के दिन अब खत्म हो रहे हैं. वैचारिक प्रतिबद्धता की राजनीति ही वर्तमान समय में लम्बी दूरी तय कर सकती है. बेरोजगारी, भ्रष्टाचार और महंगाई तीन ऐसे बिंदु हैं जो जातीय समीकरण से अलग एक राजनीतिक गोलबंदी का मैदान बना रही हैं. भविष्य में इसी के इर्द-गिर्द राजनीतिक समीकरण भी बनेंगे. देखते चलिए भविष्य में समीकरण कैसे बनते हैं. फिलहाल राजनीतिक समीकरण का विश्लेषण करके हम इसका कयास ही लगा सकते हैं.