श्रम का समान मूल्य और ट्रस्टीशिप से आयेगा विनोबा का साम्ययोग विनोबा के शब्दों में

स्वराज्य के बाद हमे अब साम्ययोग की स्थापना का आदर्श सामने रखना होगा। इसी को हमने सर्वोदय कहा है। सर्वोदय यानी सबका भला। किसी का कम और किसी का ज्यादा भला नही। सबकी समान चिंता और सब पर समान प्यार। हमने अहिंसा की शक्ति से स्वातंत्र्य प्राप्त किया है, अब अगर हम दूसरा कदम, आर्थिक और सामाजिक समानता कायम करने का नही उठाते, तो हमारा स्वातंत्र्य खतरे में है।


साम्ययोग के कारण आर्थिक क्रांति होगी। राजनैतिक क्षेत्र में भी आज के मूल्य बदले जायेंगे। सामाजिक क्षेत्र में जातिभेद या उंच नीच का भाव नही रहेगा। साम्ययोग नैतिक, आर्थिक, राजनैतिक और सामाजिक क्षेत्रों में परिवर्तन लाना चाहता है। इसी को क्रांति कहते है। हमार दावा है कि साम्ययोग नैतिक मूल्यों में परिवर्तन करता है, क्योंकि उसकी बुनियाद आध्यात्मिक है और वह जीवन की सारी शाखा उपशाखाओं में आमूलाग्र क्रांति करता है।


साम्ययोग का मानना है कि हरएक मानव में एक ही आत्मा समानरुप में बसती है। साम्ययोग मानव मानव में भेद नही करता, बल्कि मानव आत्मा और प्राणीमात्र की आत्मा में भी बुनियादी भेद नही मानता। हां, इतना ही मानता है कि मानव की आत्मा में जो विकास संभव है, वह दूसरे प्राणियों की आत्मा में नही हो सकता।


पारमार्थिक साम्य ही हमारा मूल सिद्धांत है। उसी की बुनियाद पर आर्थिक साम्य लाने की हमारी प्रक्रिया होनी चाहिये। जातीभेद आदि छोटेमोटे भेद आर्थिक समता से ही मिटेंगे। आर्थिक समता की दृष्टी रखकर काम करने से धर्म को भी विशुद्ध रुप प्राप्त होगा।


अहिंसक समाज रचना हम स्थापित करना चाहते है, तो अपरिग्रह का खयाल रखना चाहिये। यानी जिनके पास संपत्ति है, उन्हे सच्चे अर्थ में उसके ट्रस्टी बनाना चाहिये, तभी अहिंसा का दर्शन होगा। नही तो उत्तरोत्तर अशांति बढती जायेगी।


अर्थप्राप्ति की पद्धति का नियमन अस्तेय करता है और उसकी मात्रा का नियमन अपरिग्रह करता है। अस्तेय और अपरिग्रह दोनों मिलकर अर्थशुचित्व पूर्ण होता है, जिसके बगैर व्यक्ति और समाज के जीवन में धर्म की प्रतिष्ठा नही हो सकती। सत्य और अहिंसा तो मूल है, लेकिन आर्थिक क्षेत्र में दोनों का अविर्भाव अस्तेय और अपरिग्रह से ही हो सकता है।


अस्तेय कहता है कि शरीर का निर्वाह मुख्यतया शरीरश्रम से यानी उत्पादक श्रम से होना चाहिये। इसलिये अस्तेय व्रत शरीरश्रम द्वारा संपत्ति निर्माण पर जोर देता है। जरुरत से जादा संपत्ति अपने पास नही रखनी चहिये, इस बात को हम मानते है। लेकिन किसकी जरुरत कितनी है यह कौन तय करें? अपरिग्रह एक विचार है। वह विचार अगर मनुष्य के हृदय में प्रवेश करता है, तो वही मनुष्य को सुझायेगा कि उसके पास कितने संग्रह की आवश्यकता है। वह अपने लिये जो भी तय करेगा, उसमें मै समाधान मानूंगा, बशर्ते कि अपरिग्रह के विचार को वह सच्चे दिल से मानता हो।


सर्वोदय की दृष्टी से अमीरी गरीबी, दोनों पाप है। लोग मानते है कि पिछले जन्म में कोई पाप किया होगा, इसलिये इस जन्म में गरीबी मिली है। इसी तरह यह भी मानते है कि पिछले जन्म में कोई पुण्य किया है, तभी इस जन्म में धनवान बने है। पैसे को पुण्य मानना गलत विचार है।


पुण्य का परिणाम संपत्ति नही, सद्बुद्धि है और पाप का परिणाम गरीबी नही, कुबुद्धि है। भगवान देखता है कि संपत्ति का उपयोग गरीबी की सेवा में करता है या लोगों को पीडा पहुंचाने में करता है? अगर लोगों को सुख देने के लिये संपत्ति का उपयोग करता है, तो वह भगवान की परीक्षा में पास हो जाता है। और दूसरों को पीडा पहुंचाने में करता है, तो भगवान की परीक्षामें अनुत्तीर्ण होता है।


श्रीमान धन से धनवान है, तो श्रमशक्ति के हिसाब से गरीब है। गरीब पैसे से गरीब है, तो श्रमशक्ति के हिसाब से धनी है। श्रीमान और गरीब में एक एक शक्ति है। दोनों की शक्ति का उपयोग होगा, तो बहुत लाभ होगा। शक्ति और बुद्धि का योग होगा, तो गरीबी मिट जायेगी।


संपत्ति की विषमता कृत्रिम व्यवस्था के कारण पैदा हुई है, ऐसा मानकर उसे छोड दे, तो भी मनुष्य की बौद्धिक और शारीरिक शक्तियों की विषमता दूर होगी ही ऐसा नही। आदर्श स्थिति में भी इस विषमता के सर्वथा अभाव की कल्पना नही की जा सकती। इसलिये बुद्धि, शरीर और संपत्ति, इन तीनों में से जो प्राप्त हो, उसे यही समझना चाहिये कि वह सबके हित के लिये ही उसे मिली है। इसी को अच्छे अर्थ में ट्रस्टीशिप कहेंगे।


नैतिक मूल्यों के समान आर्थिक क्षेत्रों में भी श्रम का मूल्य समान होना चाहिये। किंतु आज इससे बिल्कुल उल्टा होता है। आज शरीरिक काम की अपेक्षा बौद्धिक काम की मजदूरी ज्यादा दी जाती है। उसकी प्रतिष्ठा भी ज्यादा होती है। लेकिन इस तरह का फर्क बिल्कुल बेबुनियाद है। चुंकि साम्ययोग का विचार आत्मा की समता पर निर्भर है, इसलिये आर्थिक क्षेत्र में भी वह कोई भेद स्वीकार नही कर सकता। समाज में हरएक की सेवा का प्रकार भिन्न हो सकता है, पर उसका आर्थिक मूल्य समान ही होना चाहिये।


साम्ययोग के सिद्धांत के अनुसार जब नैतिक मूल्यों में अंतर नही आता, तो आर्थिक क्षेत्र में भी अंतर नही होना चाहिये। हरएक को विकास का पूर्ण मौका मिले, तालीम का अवकाश मिले। समान मौका मिलने पर जिसमें जो योग्यता होगी, वह उस धंदे में प्रवेश कर सकेगा। मजदूरी का परिमाण कमबेशी होने पर विकास गलत तरिके से होगा और व्यर्थ ही दूसरे क्षेत्र का आकर्षण होगा, जैसा कि आज हो रहा है। समान वेतन से यह वृत्ति रुकेगी।


हम देखते है कि हमारे समाज में दर्जे पडते गये। कुछ लोग अपने को ऊंचे कहलाने लगे और उन्होंने शरीर परिश्रम से खुद को मुक्त कर लिया। जिन्हें शरीर परिश्रम करना पडा, वे सारे निचे माने गये। अगर देश के लिये परिश्रम करनेवाले निचे माने जाये, तो वह देश पतन की ओर जाता है।


हमारे चिंतन में शुद्धि होनी चाहिये। संग्रह करना पाप है, शरीरश्रम टालना पाप है, यह विचार रुढ होना चाहिये। किसान और मजदूरों को छोडकर, जो कि अपने पसीने से रोटी कमाते है, हम सबकी गिनती लूटनेवालों में है। इसलिये हरएक को व्रत लेना चाहिये कि कुछ न कुछ उत्पादक परिश्रम किये बगैर नही खायेंगे।


आज समाज में जो यह खयाल है कि ऊंचे वर्गवालों को जीवन के लिये अधिक से अधिक वेतन और श्रमनिष्ठों के लिये कम से कम वेतन चाहिये, वह हमें हटाना होगा और साम्ययोग स्थापित करना होगा। होना तो यह चाहिये कि अगर मनुष्य कोई बौद्धिक और नैतिक परिश्रम करता हो, तो उसका कोई मूल्य ही नही आंका जाना चाहिये। कोई भी व्यक्ति अपनी शक्तिभर समाज का काम करता है, तो वह रोटी का हकदार हो जाता है। कम ज्यादा शक्ति के अनुसार सेवा कम ज्यादा हो सकती है, किंतु पोषण भौतिक वस्तु है और सेवा नैतिक वस्तु। नैतिक वस्तु की कीमत भौतिक वस्तु से नही हो सकती।


अगर राष्ट्रपति अपने राष्ट्र की सेवा पूरी ताकत के साथ करते है, भले ही वह सेवा मानसिक क्यों न हो, तो उन्हे उतनी ही रोजी मिलनी चाहिये, जितनी उनकी जीवन निर्वाह के लिये जरुरी है। जो न्याय किसान मेहतर के लिये हो, वही राष्ट्रपति के लिये भी होना चाहिये।


ग्रामीण जीवन में, देहात की जिंदगी में रस कैसे पैदा हो, ग्रामीणों की दिलचस्पी जीवन में कैसे बढे यह सवाल है। ग्रामीण जीवन सुंदर, सुखमय और जीनेलायक हो सकता है, यह हमें दिखाना होगा। जबतक शरीरश्रम को नैतिक, सामाजिक और आर्थिक प्रतिष्ठा नही देते, तब तक ग्रामीण जीवन निषिद्ध रहेगा। भारत में हमने शरीरश्रम को सामाजिक प्रतिष्ठा नही दी, यह एक बहुत बडा पाप किया है। हमने परिश्रम की आर्थिक प्रतिष्ठा भी कम की है। समाज में किसी ने जादा परिग्रह रखा और सारा समाज भूखा है, तो हम मानते है कि उस हालत में समाज को अधिकार है कि उस व्यक्ति की प्रॉपर्टी का एक हिस्सा समाज के हित में ले लिया जाये।


(विनोबा साहित्य खंड 18 से, शब्द विनोबाके है, विषयवस्तु स्पष्ट करने हेतु सुविधानुसार क्रमबद्ध किये है।)


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