शिया सुन्नी के बीच रगड़े झगड़े की जड़ में क्या है ?


लोकतंत्र और विज्ञान एवं तकनीकी की महान उपलब्धियों के जरिए अब तो सारी दुनिया उस मुकाम पर पहुंच चुकी है जहां उसको धर्म की रत्तीभर जरूरत नहीं है लेकिन दुनिया के सभी धर्मों की तिजोरियां इस कदर भरी पड़ी हैं कि एक परजीवी वर्ग इसे जिंदा रखने के लिए सियासत से लेकर शिक्षा और संस्कृति के बड़े बड़े कथित पवित्र संस्थान खड़े कर रखे हैं जिसके खिलाफ उंगली उठाने पर पूरा हाथ ही तोड़ दिया जाता है ...!
भारत में देखते ही देखते खुदा हाफ़िज़ की जगह मुसलमानों ने जिस तरह से अल्ला हाफ़िज़ कहना शुरू कर दिया उसे सुनकर मुझे घिन आती है ...इस नए दुआ सलाम ने भारत में हिन्दू मुसलमान के बीच एक नई दूरी पैदा कर दी है जिसके लिए हिन्दू जिम्मेदार नहीं हैं बल्कि इसके पीछे सऊदी अरब का हाथ बताया जा रहा है ...........जो इस्लामी झंडे के नीचे दुनिया का हर पाप कर रहा है ?
आधुनिक समाज को इंसान के बीच दूरी पैदा करने वाली किसी भी गतिविधि का विरोध करना चाहिए.... साथ ही जो ताकतें इसके पीछे होती हैं उनका वहिष्कार करना हमारी सबसे बड़ी जिम्मेदारी है ...?
पाकिस्तान के कराची शहर में जिस तरह से बहुसंख्यक सुन्नियों ने शिया सेक्ट के खिलाफ सड़कों पर उतरकर उन्हें काफिर तक कह डाला उसने इमरान खान जैसे पढ़े लिखे पाकिस्तान के प्रधानमंत्री को सुन्नियों के खिलाफ शख्त कदम उठाने का मौका दिया है ...क्योंकि इस तरह का ज़हर तो भारत में भी नहीं उगला गया है जहां के बहुसंख्यक हिन्दू समाज ने साम्प्रदायिक झगड़ों को बढ़ाने वाले ठेकेदारों को मुंहतोड़ जवाब देते हुए मुसलमानों को कभी काफ़िर नहीं कहा बल्कि सैकड़ों साल से कुछ अपवादों को छोड़कर एक दूसरे के साथ मोहब्बत के साथ रहते आ रहे हैं उल्टे कुछ मुस्लिम इदारे इस्लाम को श्रेष्ठ धर्म बताने के नशे में हिंदुओं को ही काफ़िर खहते रहे हैं जिसने साम्प्रदायिकता की राजनीति को बढ़ाने में बड़ा ख़तरनाक मोड़ दिया है ...!
शिया सुन्नी के बीच इतना कडुवाहट की वजह दूसरे धर्मों के लोग भी जानना चाहते हैं बहुत मुख्तसर में मैंने तो इतना ही समझा है कि इसके पीछे लीडरशिप का झगड़ा रहा है क्योंकि पैगम्बर हज़रत मोहम्मद साहब के बाद जो लोग उनके चचेरे भाई और बाद में दामाद बन चुके हज़रत अली को ख़लीफ़ा अर्थात राष्ट्राध्यक्ष बनाना चाहते थे सफल नहीं हुए और वरिष्ठता एवं त्याग सहनशीलता खुलूस जैसे महान गुणों के नाते पहले हज़रत अबु बक्र फिर हज़रत उमर और हज़रत उस्मान को हुजूर साहब की सबसे चहेती बीबी हज़रत आयशा की सहमति से बनाया गया ....
जो भी हो 1400 साल पुराना यह झगड़ा एक विशुद्ध राजनीतिक धर्म के दो ऐसे अनुयायियों के बीच है जिसमें से शिया सम्प्रदाय के लोग परिवारवाद और वंशवाद को स्थापित करना चाहते थे जिसे तत्कालीन एक बहुत बड़े मुस्लिम समाज ने नकार दिया इसलिए कि इस्लाम योग्यता कर्तव्य एवं निष्ठा तथा त्याग और वरिष्ठता के सिद्धांत को अपनाना चाहता था ....इसीलिए शिया सम्प्रदाय अल्पांख्यक रह गया क्योंकि उसने हजरत अली के अलावा किसी और को पैगम्बर साहब का राजनीतिक एवं धार्मिक वारिस स्वीकार नहीं किया ...?


Asgar khan