सांस्थानिक या आंदोलन के मुद्दों पर नारीवाद की बहस हमेशा बैक सीट पर चली जाती है!

भारतीय अर्थव्यवस्था में सरकारी या निजी नौकरियों और बिजनेस में अपनी पावरफुल जगह बनाने वाली औरतों का बड़ा तबका हिन्दू धर्म के सवर्ण वर्ग से आता है, जिसकी पॉलिटिकल ट्रेनिंग लगभग शून्य है.


बीजेपी कि सरकार में हर उस आदमी और औरत को बेहद फायदा हुआ है जिसकी राजनीति या आम समझदारी, उसके कैरियर के आड़े नहीं आ रही.


बल्कि अराजनीतिक होना कब बीजेपी की राजनीति का झंडा थाम लेना बन गया ये पिछले 6 सालों में कब घटित हुआ किसी को ठीक ठीक पता नहीं चला.



नौकरियों में मौजूद, महिलाओं, युवाओं की कथित रूप से अराजनीतिक संख्या का भगवाकरण इतनी तेजी से कैसे हुआ ये जानने के लिए इतना समझना पर्याप्त होगा कि बीजेपी की सत्ता के वर्चस्व ने उन्हें वो मौके उपलब्ध कराए हैं जहां पहुंचना कांग्रेस की अवसरवादी राजनीति के गुर्गों की वजह से इन लोगों के लिए बहुत मुश्किल हो रखा था.


बीजेपी ने नौकरियों और नौकरशाही में कांग्रेस की राजनीतिक संस्कृति से छुटकारा पाने के लिए ऐसे लोगों को प्राथमिकता देना शुरू से चुना जो उन्हें सफल बनाने के लिए किसी भी तरह के राजनीतिक झुकाव और दबाव के चक्कर में बिना पड़े, आक्रामक तरीके से उनका समर्थन कर सकें.


क्या आंखी दास और क्या निर्मला सीतारमण, अर्थव्यवस्था में मौजूद हर महिला की हैसियत और सब से उम्मीद एक ही है कि सत्ता या संस्थान के शिखर पुरुष/पुरुषों की सफलता और उनके बचाव के लिए, आम लोगों के बीच अपनी इमेज (बीजेपी कि राजनीति की भाषा में व्यक्तिगत अहम) की परवाह किए बगैर भिड़ जाना है.


ऐसे में नारीवाद की बहस के तार जब तब व्यक्तिगत मामलों में महिलाओं की विच हंटिंग से जुड़ते रहते हैं जबकि सांस्थानिक या आंदोलन के मुद्दों पर नारीवाद की बहस हमेशा बैक सीट पर चली जाती है!


Jaya Nigam