सामंतवाद दलित और आदिवासी के लिए चाहे कितना भी खौफनाक हो, उसका ताना बाना मोहक होता है.

मनातू, पलामू, के आदमखोर के रूप में चर्चित जगदीश्वरजीत उर्फ मउवार नहीं रहे. 94 वर्ष की उम्र में उनका देहांत हो गया. उनके बारे में कहा जाता था कि वे विद्रोह करने वाले बंधुआ मजदूरों को अपने पालतू चीते के सामने डाल देते थे. मैं इस खबर को नजरअंदाज कर देना चाहता था. लेकिन कुछ बातें कचोटती हैं.


मेरे प्रिय मित्र मनमोहन पाठक ने अपने उपन्यास में उन्हें पात्र बनाया है और उस आतंक को जीवंत कर दिया है. कई अन्य कहानियों के भी वे खल चरित्र रहे हैं. और कथा साहित्य में खल पात्रों की जरूरत भी होती है. उसके बगैर नायकत्व या शौर्य कथाएं अधूरी हो जाती हैं.



समस्या यह है कि वे एक यथार्थ थे. सामंती उत्पीड़न के एक प्रतीक चिन्ह. वे नहीं रहे, लेकिन सामंतवाद अभी पूरी तरह खत्म नहीं हुआ. वह सामंतवाद जिसका एक स्पष्ट जातीय आधार भी होता है. यनि, सामंती उत्पीड़न का शिकार सामान्यतः वंचित जमात, आदिवासी और दलित, होते हैं. उस सामंतवाद को मनुवाद और मजबूत करता है.


इसलिए मेरे जैसा व्यक्ति तटस्थता का तानाबाना नहीं बुन सकता. कम्युनिस्ट होने की वजह से नहीं, गांधीवादी होने की भी वजह से. क्योंकि एक सामान्य सा सूत्र है कि जो हालात अंतिम जन के खिलाफ जाता हो, उसका समर्थन हम तटस्थता का आवारण ओढ़ कर कैसे कर सकते हैं?


इस बात में कोई संदेह नहीं कि सामंतवाद दलित और आदिवासी के लिए चाहे कितना भी खौफनाक हो, उसका ताना बाना मोहक होता है. कला और संस्कृति ही नहीं, साहित्य भी उसकी चिर ऋणि है. मानव जाति ने विकास का एक पूरा दौर सामंतवाद की छाया में तय किया. लेकिन यथार्थ यह भी है कि पूरी आधुनिक सभ्यता अफ्रीकी गुलामों के अकूत शोषण , उत्पीड़न से पैदा हुई पूंजी की देन है तो, भारत में दलित और आदिवासियों के श्रम-संसाधन की बर्बर लूट पर ही खड़ी हो रही है पूरी आधुनिक सभ्यता.


मैंने हाल में एक पुरानी कहानी पढ़ी जिसमें एक सामंती जमींदार की नफासत और उनके वैभव का बड़ा ही चित्ताकर्षक वर्णन है. लेकिन अंत इस खौफनाक तथ्य से होता है कि वह शिकार के लिए चारे के रूप में अपने ही रखैलों के नवजात शिशुओं का इस्तेमाल करता था.


इसलिए सामंतवाद से तो आपको घुणा करनी ही होगी और मउवार सामंतवाद का मूर्त रूप था, भले ही उम्र के साथ उसके चीता या बाघ के पंजे ढ़ीले पड़ गये हों.



विनोद कुमार