पूरे ब्रह्मांड की सारी सभ्यताओं से संवाद का जरिया तो शिक्षा ही है।

शिक्षा दो आंखों का भेंग नहीं वरन तीसरी आंख है'
आज उसी 'तीसरी आंख' के बारे में कुछ
●●●
इसके समस्त अभ्यासकर्ताओं को आज के दिन
की शुभकामनाएं
●●●
उन अनाम मेहनतकशों,मजदूरों,किसानों के लिए
जिनके पसीने की बूंदें स्याही बनीं तो फावड़े कलम
की नोक बन गए।
उन आदि गुरुओं के नाम जिन्होंने दुनिया गढ़ी।
और हमे मनुष्य बनना सिखाया।
●●●
शिक्षा दो आंखों का भेंग नहीं,वरन तीसरी आंख है।
ऐसा धूमिल कहते हैं।
तो उनका आशय क्या यही है कि शिक्षा जीवन के
उन अंधेरे प्रदेशों को भी दीप्त करती है जिन तक
सामान्यतया हमारी दो आंखें नहीं पहुंच पातीं !



शिक्षा का प्रदेश मनुष्यता के इतिहास का सर्वाधिक
उर्वर प्रदेश रहा है।तमाम विषय कला,विज्ञान,साहित्य,
दर्शन,इतिहास,भूगोल,विचार,विरोध,प्रतिरोध;सब इसी
प्रदेश के विविध हिमालय हैं।
शिक्षा अपनी सभ्यताओं में से उन तमाम सांस्कृतिक
निक्षेपों को,स्मृतियों को संवहनित करती है जो
भविष्य के सपने रचती है और सपनों का भविष्य
रचतीं हैं।
पूरे ब्रह्मांड की सारी सभ्यताओं से संवाद का जरिया
तो शिक्षा ही है।यह एक नैरंतर्य है:वैचारिक भी और
मनोवैज्ञानिक भी।शिक्षा से वंचित मनुष्य अपनी
सभ्यता संस्कृति की मूल स्थापनाओं तक पहुंच ही
नहीं पाता।
क्योंकि सम्पर्कशीलता तथा संवादशीलता
जैसी जरूरी क्षमताओं का विकास नहीं हो पाता
तो फिर वह अपनी परम्पराओं से भी कट जाता है।
शिक्षा वस्तुतः अन्वेषण की स्वतन्त्रता है।
संधान की स्वतंत्रता है।
सत्य को स्वीकार लेने का साहस है।
वह इन अर्थो में कि शिक्षा मनुष्य को संसाधन नही
बनने देती।नहीं तो फिर यह भी उपयोग में लाया
जाने लगता।
यह सवाल करना सिखाती है;प्रश्न पूछने की क्षमताओं
का विकास करती है;प्रबुद्ध एवम मानवीय समाज
सम्भव करती है।
शिक्षा परिवर्तन को एक मूल्य की तरह स्थापित करती है
और इसीलिए किसी भी मनुष्य के व्यवस्था का पुर्जा बनने की आशंकाओं को खारिज करती है।
व्यवस्था जो वर्चस्व की हो,सत्ता की हो;शिक्षा उसका
नकार है क्योंकि तीसरी आंख है,दो आंखों का भेंग
नहीं।
अहिंसक एवम शोषणरहित सामाजिक-आर्थिक
व्यवस्था की स्थापना है।
सार्थक अस्तित्व के लिए सीखने की सतत प्रक्रिया है।


अक्सर हमारी शिकायतें जो शिक्षकों और
शिक्षालयों से होती हैं कि बच्चों को कुछ सिखाया
नहीं जाता;उन शिकायतों के पीछे एक चीज
जो हम मिस करते है कि हमने सीखने की
प्रक्रियाओं की डोर के एक छोर को स्कूलों से
बांधा ही नहीं।वे बस पढ़ाने के केंद्र बने रहे।
सीखना उस कैम्पस के दायरे में आया नहीं,अक्सर।
टीचिंग तो होती रही।टीचर भर्ती होते रहे।कम या
बेसी।लेकिन लर्निंग स्थगित रही।क्योंकि लर्नर
यानी विद्यार्थी और शिक्षक दोनों पक्ष एक
ऐसे समुदाय से बिलोंग करता रहा जहाँ सीखने का
अक्सर कोई उपक्रम नहीं।बस मान लेने की
मर्यादा रही है।
सफलता एक मूल्य है लेकिन असफल हो कर भी सीखने
देने का धैर्य और शिक्षा की बेसिक डिमांड अनुपस्थित
रही।
उम्मीद करें कि शिक्षा हमे जागरूक बनाएगी।
गलत उत्तरों के साथ जीने की अपेक्षा सही सवाल
खड़े करने की सलाहियत और साहस देगी।
दिए हुए को मान लेने की जगह उस पर सवाल
उठाने और उसका समाधान खोजने की
आवश्यक दृढ़ता देगी।
एक तर्कशील मनुष्य बनाएगी।
●●●


Deepak Kumar Rai