पैदल चलनेवाला एक पुष्प-प्रेमी सज्जन नेता





 



क्या आपने ओकाकुरा काकूज़ो के बारे में सुना है? वह 19वीं सदी में जापान का एक प्रसिद्ध कलाविद् हुआ। हालाँकि उसकी जिस किताब को दुनियाभर में सबसे ज्यादा प्रसिद्धि मिली, वह उसने चाय पर लिखी थी- ‘द बुक ऑफ टी’ यानी ‘चाय की किताब’।



लेकिन काकूज़ो को फूलों से बहुत प्रेम था। चाय के शौकीन लोग जान लें कि चाय का फूल भी बहुत सुंदर होता है और उसमें बहुत भीनी-सी खुशबू भी होती है। तो काकूज़ो ने एक बार कहा था कि ‘खुशी और उदासी दोनों ही परिस्थितियों में फूल हमारे सबसे अच्छे साथी होते हैं।’



जयंत सिंह तोमर (
Jayant Singh Tomar

) जी जैसे सन्मित्र में मुझे काकूज़ो के ही दर्शन होते हैं। वे कलाविद् तो हैं ही। साथ ही काकूज़ो की तरह ही उन्हें चाय और फूल दोनों ही बहुत प्रिय है। मेरे जैसे चाय-विरोधी मनुष्य को भी उनकी संगति में यदा-कदा चाय से अपनी जीभ जलानी ही पड़ती है।



अब फूलों से किसे प्रेम नहीं होता? मुसोलिनी को प्रभावित करनेवाले राजनीतिक कवि गेब्रियल डी'एनुंजियो को भी फूलों से बहुत प्रेम था। लेकिन जयंत भाई का प्रेम विशुद्ध रागात्मक है। शब्द, रूप, रस, स्पर्श और गंध, इन पाँचों इन्द्रियबोध के साथ वे फूलों तक पहुँचते हैं।



लेकिन फूलों के बीच वे अतीन्द्रिय अवस्था में पहुँच जाते हैं। कोई भी इन्हें फूल सुंघाकर मुग्ध करके ठग ले जा सकता है। और इन्हें इसका कोई मलाल भी नहीं होगा। वे देर तक इसकी असर में रहते हैं। ये कुपित हों तो आप फूलों का जिक्र छेड़ दीजिए। फिर देखिए, फूलों की तरह दमकने लगेंगे। बातों में भी फूल ही झड़ने लगेंगे।



एक बार आत्ममुग्ध कवियों पर उखड़ गए। हमने मौके की नज़ाकत को देख तुरंत हेमंती फूल की चर्चा छेड़ दी। बस फिर क्या था! कहने लगे, अहा, अज्ञेय ने हेमंती पर कितना सुंदर लिखा है—



'लोहे

और कंकरीट के जाल के बीच

पत्तियाँ रंग बदल रही हैं।

एक दुःसाहसी

हेमन्ती फूल खिला हुआ है।

मेरा युद्ध प्रकृति की सृष्टियों से नहीं

मानव की अपसृष्टियों से है।'



इतना कहते हुए उन्होंने हेमंती की कली का अधखिला वायुपुष्ट गुब्बारा लिया और पटाखे की तरह अपने माथे पर मारते हुए पटाक की आवाज़ के साथ उसे फोड़ दिया। फिर बोले, आज की राजनीति को देखकर ऐसे ही अपना माथा पीटने का मन करता है। फिर जोरदार ठहाके के साथ मुक्तकंठ से एक निश्छल हँसी हँसने लगे।



तो जयंत भाई का एक प्रेम राजनीति भी है। इसलिए साँची के स्तूपों में विचरण करते हुए टैगोर और प्रभाकर माचवे से चलते हुए बरास्ते विन्सेंट वैन गो वे कब डॉ. लोहिया और हैरिस वोफर्ड तक पहुँच जाएंगे, आपको पता भी नहीं चलेगा।



एक बार एक वंचित महिला को उसका वाजिब हक दिलाने के लिए खंड पदाधिकारी, जिलाधिकारी, सचिव और मंत्री आदि से गुजरते हुए मुख्यमंत्री के दफ्तर तक पहुँच गए और धरने पर बैठ गए।



और जब तक उसे न्याय नहीं मिला, तबतक उन्हें नाकोंदम करके रख दिया। आपने मुहावरों में ‘फूल बने अंगारे’ देखा होगा, लेकिन जयंत जी ने अंगारों पर चलकर ही फूलों सा कोमल मिजाज पाया है।



लेकिन आप इनके ज़मीनी आत्मसम्मान को अपने उच्च-मध्यवर्गीय दिखावों से छेड़ेंगे, तो वह अंगारा फिर से रौद्र-रूप में प्रकट हो सकता है। संलग्न तस्वीरों में आपको एक में फूल जयंत और दूसरे में अंगारे जयंत के दर्शन हो सकते हैं।



ऐसे ही किसी प्रसंग में एक बार इन्होंने कहा- ‘अव्यक्त जी, उड़नखटोले और चौपहिये से चलनेवाले लोगों की औकात जानी जा सकती है, लेकिन पाँव पैदल चल रहे मनुष्य के सामर्थ्य का अंदाज़ा आप नहीं लगा सकते।’



हम दोनों ही पैदल चलनेवाले मनुष्यों को यह बात हमेशा ही एक विचित्र आत्मिक सुख पहुँचाती है। मुझे झटककर पैदल चलते हुए गांधीजी और विनोबा जैसों की याद हो आती है।



किसी मनुष्य की मनुष्यता को पहचानने की सबसे बड़ी कसौटी है कि वह व्यक्तिगत जीवन में सबसे दीन-हीन या सबसे निचले पायदान के व्यक्ति से कैसा व्यवहार करता है।



आप जयंत जी के साथ किसी भी सार्वजनिक संस्थान में घूमने जाएँ, आप देखेंगे कि दरबानों, मालियों, सफाई कर्मचारियों, चपरासियों और अरदलियों का कितना सच्चा प्रेम उनपर रहता है। उनके नाम के साथ सम्मानसूचक ‘जी’ लगाकर बात करना उनके सहज स्वभाव में ही है।



मेरे सामने की एक घटना है। ग्वालियर के मेला ग्राउंड की पुलिस चौकी ने किसी गरीब तिपहिया चालक के वाहन को जब्त कर लिया। अब वह बेचारा परेशान हो गया। इस कठिन परिस्थिति में उसे जयंत भाई की याद आई। कोई पुरानी पहचान रही होगी।



हम दोनों पुलिस चौकी पहुँचे। संभवतः वह आरटीओ की चौकी थी। शुरू में वहाँ बैठे पुलिस अधिकारी ने आदतन ही ताव में बात की। जयंत भाई ने अपना कोई परिचय तक नहीं दिया। लेकिन वह जयंत भाई के व्यक्तित्व से इतना प्रभावित हुआ कि तुरंत अपना ही दुःख उन्हें बताने लगा। चालक को अपना तिपहिया वाहन वापस मिल गया।



इस तरह सिद्ध हुआ कि आज की प्रचलित दुर्व्यवस्था में भी एक सज्जन जननेता बनने के सारे गुण उनमें मौजूद हैं। विनोबा को राजनीति पर भरोसा नहीं था। अपना भी नहीं है। लेकिन विनोबा फिर भी कहते थे—



‘बचपन में मैंने एक मराठी कविता सुनी थी: ‘आत्मस्तुति, परनिन्दा, मिथ्याभाषण कधी न येवो वदना।’ मैंने इस कविता के नीचे लिखा : अपवाद — चुनाव।



...सर्वोत्तम लोगों द्वारा ये तीनों ही बातें नहीं हो सकती। सज्जन लोग बेतहाशा पैसा खर्च नहीं कर सकते। वे अपनी प्रशंसा और दूसरों की निन्दा भी नहीं कर सकते। और इसके बिना उन्हें वोट मिल नहीं सकते।’



एक दिन हमने कहा कि जयंतभाई संतों ने तो राग और द्वेष दोनों से छूटने को कहा है। ‘वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते’। इन्होंने तुरंत पलटकर कहा- ‘जब जीवन में राग ही नहीं रहा, तो फिर बचेगा क्या अव्यक्तजी!’



इसलिए अपने बचे-खुचे राग को बटोरकर मैंने अपने प्रिय जयंतभाई के लिए सब अच्छा-अच्छा लिखा है। इसकी एक वजह है कि इनका मुझसे वादा है कि यदि कालदेवता अव्यक्त की चोटी पकड़कर पहले ही खींच ले गया तो जयंतभाई एक रागात्मक और लालित्यपूर्ण श्रद्धांजलि मेरे प्रति लिखेंगे। इनके नियमित पाठक आपको बताएंगे कि इनके लालित्य में कालिदास और भवभूति के दर्शन एकसाथ होते हैं।



इनमें रजोगुण और सतोगुण का एक विचित्र संयोग देखने को मिलता है, जो आज के राजनेताओं में दुर्लभ ही है। तो ऐसे रागरागी जयंतभाई मध्य प्रदेश के दिमनी विधानसभा क्षेत्र से चुनाव में उतरे हैं।



समय-साल ठीक रहता और इनसे सैकड़ों किमी दूर न होता, तो दिमनी के जन-गण के साथ अपना नियमित सत्संग चलता कि भाईयों-बहनों-माताओं! यह ठीक आदमी है। इसपर भरोसा करो। यह और कुछ भी करेगा, लेकिन दगा नहीं करेगा।



इसे आजतक कोई पैसों से खरीद नहीं सका है, इसलिए यह पैसों का हेर-फेर नहीं करेगा। इस आदमी की सज्जनता और विद्वता से भोजपाल के श्यामला वादियों की शोभा ही बढ़ेगी। यह राजनीति को लोकनीति से जोड़ेगा। सार्वजनिक शिष्टता में सबका भरोसा फिर से कायम करेगा।



~अव्यक्त,

24 सितंबर, 2020