सदियों से आत्मनिर्भर हैं सरकार! समाज के संचालक भी। हाल में ठग, टपोरी, टप्पेबाज हुनरमंद मान लिए गए। उछल-कूद करने वाले समर्थकों के गले पर बैंक लोन का फंदा कस दिया है।
...पहाड़ों से निकलती नदियों का वेग थमने लगा है, पानी का स्तर घट चुका है। नदी-गधेरे हिमालयी भूभाग से खनिज-अयस्क लेकर मैदानी क्षेत्र की मृदा को तंदुरुस्त करेंगे। पर्वतों का मीठा पानी देशवासियों का हलक तर करेगा। ढलान में बहते ठोस पत्थर चूरा बन भावर की नदियों को चमकीला करेंगे। स्वच्छ रेत सरकार-माफियाओं की तिजोरी में चांदी भर देगी।
...बरसात के बाद पहाड़ वासियों को विकट रस्ते आसान बनाने हैं, सफर थोड़ा कम करना है। तीखी चढ़ाई में कंधों पर बैठा मरीज सड़क-अस्पताल से पहले दम न तोड़ दे, इसलिए गहरी नदी पर पुल बांधना है। पुल कस कर बंध जाए तो नौ महीने पैरों को कुछ आराम मिलेगा। फिर गरज कर बादल बरसेंगे, तेज धारा पुल बहाकर नदी का फाट चौड़ा कर देगी।
...ऐसा जान पड़ता है हालात के एक सिलसिले में मेहनती कौम खुद इंजीनियर-डाक्टर बन जाया करती है। उनका ज्ञान परिस्कृत होकर किताबों में कैद कर दिया जाता। शोध से भरी पुस्तकें शातिर धनवानों की सेवक बन जाती। उच्च शिक्षण संस्थानों से निकलने वाले चाकर बन जाते, मेहनत वाले अपने हाल में बने रहते। ज्ञान का मेहनत से नाता टूट जाता।
...ऐसा हुआ कि एक बार खड़गपुर आईआईटी में सिविल ट्रेड के छात्रों का प्रैक्टिकल चल रहा था। छात्र मैदान में गोल घेरा बनाए खड़े थे। प्रोफेसर ने एक श्रमिक से सीमेंट की बीम तुड़वाई। भारी घन के वार से बीम का चूरा बना तो प्रोफेसर का लेक्चर शुरू हुआ। उन्होंने छात्रों को बीम की नाप-जोख, एंगल-डिजाइन और सीमेंट-सरिया, रेत-बजरी का अनुपात समझाया। लेक्चर करीब पौन घंटे चला। अंत में प्रोफेसर ने कहा-Okay, have you understood everything, Any question? (क्या आप लोग सारी बातें समझ चुके हैं, किसी को कुछ पूछना है)। तभी एक छात्र बोला-सर बांकी तो ठीक है, लेकिन इतनी सख्त बीम के भीतर लोहे की सरिया कैसे डाली गई, ये समझ में न आया।
...खैर जो भी हो। नदी पार करने को सदियों से लोग पुल बनाते हैं। बाद के समय में इनकी मजबूती और खूबसूरती बढ़ती गई। ब्रिटेन, अमरीका ने इस इंजीनियरिंग मेंं बहुत प्रगति की और दुनिया के विशालतम झूला पुल बनाए। बाद के समय में पुल निर्माण में चीन और जापान का विज्ञान बहुत आगे बढ़ गया। भारत में ऐसा कुछ न हुआ। अंग्रेजों के बनाए झूला पुलों की मरम्मत भी मुश्किल होती गई। इस तकनीक में कतई इजाफा न हुआ। नकल से बने नए झूला पुल बेहद कमजोर और घटिया साबित हुए। पर्वत वासियों को पर्याप्त घटिया पुल भी नसीब न हुए।
...लिहाजा लोग खुद ही नदी पार जाने की जुगत भिड़ाते हैं। कच्चा पुल बनाने का काम करीब एक हफ्ते चलता है। दर्जनों गांव वाले जंगल से पेड़ काटकर नदी तक पहुंचाते हैं। पत्थरों के टीले बना कर उनमें लकड़ी फिट बैठाना मुश्किल काम है। गोल पत्थरों से चोटिल होना, तेज बहाव में गिर पड़ना आम बात है। देश को हर साल खरबों की खनिज संपदा, शुद्ध हवाएं, मीठा पानी देने वाली नदियों के उद्गम किनारे मानव जीवन बड़ा उदास है।
..हम शिखरों को लांघते हैं, उफनाती नदियों से भी भिड़ते हैं,
मूर्ख हैं जो नारे देते, मेहनत वाले ताउम्र आत्मनिर्भर रहते हैं..