महात्मा टाल्सटाय जन्मदिवस

लियो टॉलस्टॉय/लेव तोल्सतोय के जन्मदिन पर


‘कर्म करो और फल की चिंता मत करो।‘ इस सुंदर बात को हम ठीक से समझ नहीं पाते। बड़ी भूल हो जाती है।


हालाँकि बात एकदम सरल है, लेकिन हम अर्थ का अनर्थ करते हैं। इससे कुछ का कुछ हो जाता है। मजाक बनने लगता है।



एक भले मानुस ने सहजभाव में ही एक बार पूछा— ‘कर्म करूँ मैं, और उसका फल पाए कोई और? सारी मेहनत मैं करूँ, तो फिर उसका फल मैं क्यों छोड़ूँ? ऐसे में तो कोई भी किसी से काम करवा ले और मजूरी ही न दे। ये क्या बात हुई?’


उत्तर मिला— ‘हमें क्या लगता है कि हम जो करते हैं, उसका फल केवल उतना ही होता है जितने की हमें अपेक्षा रहती है? हम तो खुद ही अपने श्रम की कीमत बहुत कम लगाते हैं।


और उसके एवज में जितना पाते हैं, उससे या तो कभी संतुष्ट ही नहीं हो पाते। या फिर मन-ही-मन फूले नहीं समाते हैं कि चालाकी से थोड़ा करके ही ज्यादा कौड़ी पा लिया। है कि नहीं?


अपेक्षा से कम पाया तो असंतुष्टि, और ज्यादा पा लिया तो कभी ग्लानि और कभी अहंकार। बेचैनी तो वहीं की वहीं रही न?


उसने कहा— बात तो ठीक है। इसका कारण क्या है? करें क्या?


उत्तर मिला— कारण है महान फल की जगह क्षुद्र फल की आसक्ति। अपेक्षा से कम मिलने का भय। और ज्यादा मिल जाने पर उसके छिन जाने का भय। और फिर जब हमारा ध्यान केवल फल/परिणाम पर ही होता है तो हम उस कर्म का सच्चा आनंद ही नहीं ले पाते हैं।


हम तो बल्कि उस कर्म में उपस्थित ही नहीं रहते हैं। कर्मप्रदेश की जगह, पहले से ही फलप्रदेश में घूमते रहते हैं। अपेक्षा, आसक्ति, चिंता, असंतुष्टि, भय, ग्लानि और अहंकार, इन सबके बीच हमें उसका क्षुद्र फल मिल भी जाए, तो भी उसका कैसा आनंद आएगा?


उसने फिर कहा— हाँ, बात तो समझ में आती है। लेकिन करें क्या? ये तो बताइये!


उत्तर मिला— विनोबा ने ‘गीता-प्रवचन’ में टॉलस्टॉय के शब्दों में इसे सुंदरता से समझाया है:


“लोग ईसा मसीह के त्याग की बहुत स्तुति करते हैं। परंतु ये संसारी जीव तो रोज न जाने अपना कितना खून सुखाते हैं, दौड़-धूप करते हैं! पूरे दो गधों का बोझ अपनी पीठ पर लादकर चक्कर काटनेवाले ये संसारी जीव!


...ये बेचारे तो ईसा से भी कितना ज्यादा कष्ट उठाते हैं! कितनी ज्यादा दुर्दशा होती है इनकी! यदि ये इनसे आधे भी कष्ट उस कार्य को ईश्वर का कार्य मानकर उठाए, तो सचमुचे ये ईसा से भी महान हो जाएंगे।”


कहने का मतलब यह कि जैसी वासना, वैसा ही फल। संसारी अर्थों में ‘अमीर’ हो या ‘गरीब’, मनुष्य तपस्या तो बहुत करता है, लेकिन क्षुद्र फलों की खातिर। क्षुद्र फल तो कम या ज्यादा किसी विधि हमें मिलना ही है।


लेकिन यदि हम खुद ही अपनी कीमत को कम करके आँकते हैं, तो उससे ज्यादा कीमत संसार में हमारी नहीं आँकी जाएगी।


इसलिए टॉल्सटॉय कहते थे कि अपना सारा कार्य यह मानकर करो कि सत्य-नियम रूपी ईश्वर ने तुम्हें वह भूमिका दी है। तुम केवल एक माध्यम हो और तुम्हें किसी महान उद्देश्य की पूर्ति के लिए वह महान भूमिका मिली है।


जैसे ही अपने उस कर्म को तुम किसी महान उद्देश्य से जोड़ देते हो, उसका फल कई गुना बढ़कर पूरी दुनिया में फैल जाता है। फिर तुम अपने फल के आस-पास बाड़ नहीं लगाते। बाड़ लगाने से तो मनुष्य उस कर्म से मिलनेवाला अनंत सुख खो बैठता है।


सांसारिक मनुष्य अपार मेहनत करके भी थोड़ा और क्षुद्र फल ही प्राप्त कर पाता है। जबकि कर्मयोगी थोड़ा-सा करके भी अनंतगुना प्राप्त करता है।


तभी तो कहा गया- ‘दासी रमा तस्य न याचते यः।’ इसी बात को किसी मराठी संत कवि ने कहा- ‘न मागे तयाची रमा होय दासी।’ यानी जो क्षुद्र फल नहीं चाहता, वास्तविक लक्ष्मी उसी की दासी बनती है।


संत कबीर ने इसी बात को दूसरी तरह से कहा—


सहज मिलै सो दूध है, मांगि मिलै सो पानी।
कहै कबीर सो रक्त है, जामें ऐंचा-तानी।।


मौजूदा दुनिया के सारे संघर्षों को गौर से देखेंगे, तो पाएंगे कि वह क्षुद्र फलों की खातिर चल रही खींचातानी ही है। ऐसे में स्वयं को सुखी और धनवान देखने-दिखानेवाले चतुर-चालाक भी वास्तव में सत्यानंदित हैं या उस महान सत्य-फल को चख ही पा रहे हैं, ऐसा नहीं कह सकते।


सब कोई फलासक्ति के बोझ से निकलें! सब जन सुखी और आनंदित रहें! 


अव्यक्त