महान क्रांतिकारी जतिंद्रनाथ मुखर्जी यानी 'बाघा जतिन'





आज भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े महान क्रांतिकारी जतिंद्रनाथ मुखर्जी यानी 'बाघा जतिन' की 105 वीं पुण्यतिथि है। मौजूदा पीढ़ी को ऐसे महानायक में विषय में जानकारी होनी चाहिए। बाघा जतिन का जन्म पूर्वी बंगाल के कुष्टिया ज़िला अंतर्गत कायाग्राम (अब बांग्लादेश) में 7 दिसंबर, 1879 को हुआ था।

 

कहा जाता है कि आज़ादी की लड़ाई में जिस सशस्त्र फ़ौज़ का नेतृत्व नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने किया था, उसकी बुनियाद वर्ष 1915 में जतिंद्रनाथ मुख़र्जी ने रखी थी। बाघा जतिन की मृत्यु के बाद एक ब्रिटिश अधिकारी ने उनके बारे में कहा था,

 

“अगर यह व्यक्ति जीवित होता तो शायद पूरी दुनिया का नेतृत्व करता”

जतीन्द्रनाथ मुखर्जी का जन्म ब्रिटिश भारत में बंगाल के जैसोर में सन 7 दिसम्बर 1879 ई. में हुआ था। पाँच वर्ष की अल्पायु में ही उनके पिता का देहावसान हो गया था। माँ ने बड़ी कठिनाईयाँ उठाकर इनका पालन-पोषण किया था। जतीन्द्रनाथ ने 18 वर्ष की आयु में मैट्रिक की परीक्षा पास कर ली और परिवार के जीविकोपार्जन हेतु स्टेनोग्राफ़ी सीखकर 'कलकत्ता विश्वविद्यालय' से जुड़ गए। वह बचपन से ही बड़े बलिष्ठ थे।

 

कुछ ऐसी ही प्रतिभा थी बाघा जतिन की, देश के आम लोगों के लिए वे मसीहा थे, तो क्रांतिकारियों का गर्व और अंग्रेजी हुकूमत के लिए ख़ौफ का दूसरा नाम।

वर्ष 1906 में 27 साल की आयु में उनका सामना एक खूंखार बाघ से हो गया था और उन्होंने देखते ही देखते उस बाघ को मार गिराया। तभी से आम लोग उन्हें ‘बाघा जतिन’ बुलाने लगे।

 

उनकी सोच अपने समय से बहुत आगे थी। कॉलेज में पढ़ते हुए, उन्होंने सिस्टर निवेदिता के साथ राहत-कार्यों में भाग लेने लगे।

सिस्टर निवेदिता ने ही उनकी मुलाकात स्वामी विवेकानंद से करवाई। ये स्वामी विवेकानन्द ही थे, जिन्होंने जतिंद्रनाथ को एक उद्देश्य दिया और अपनी मातृभूमि के लिए कुछ करने के लिए प्रेरित किया। उन्हीं के मार्गदर्शन में जतिंद्रनाथ ने उन युवाओं को आपस में जोड़ना शुरू किया जो आगे चलकर भारत का भाग्य बदलने का जुनून रखते थे।

 

इसके बाद वे श्री. अरबिंदो के सम्पर्क में आए। जिसके बाद उनके मन में ब्रिटिश सरकार के खिलाफ़ विद्रोह की भावना और भी प्रबल हो गई। अरबिंदो ने ही उन्हें युवाओं की एक ‘गुप्त संस्था’ बनाने की प्रेरणा दी थी। यहीं से नींव रखी गयी नौजवानों की मशहूर ‘जुगांतर पार्टी’ की और इसकी कमान बाघा जतिन ने ख़ुद सम्भाल ली।

 

उस समय देश में अंग्रेजों के ख़िलाफ़ उथल-पुथल पहले ही शुरू हो चुकी थी। ऐसे में बाघा जतिन ने ‘आमरा मोरबो, जगत जागबे’ का नारा दिया, जिसका मतलब था कि ‘जब हम मरेंगे तभी देश जागेगा’! उनके इस साहसी कदम से प्रेरित होकर बहुत से युवा जुगांतर पार्टी में शामिल हो गए।

 

जल्द ही जुगांतर के चर्चे भारत के बाहर भी होने लगे। अन्य देशों में रह रहे क्रांतिकारी भी इस पार्टी से जुड़ने लगे। अब यह क्रांति बस भारत तक ही सीमित नहीं थी, बल्कि पूरे विश्व में अलग-अलग देशों में रह रहे भारतीयों को जोड़ चुकी थी।

 

बाघा जतिन ने हिंसात्मक तरीके से ‘पूर्ण स्वराज’ प्राप्त करने में भी कोई हिचक नहीं दिखाई। वे अंग्रेजों को उनकी ही भाषा में जवाब देना चाहते थे। वे कभी भी भारतीयों का अपमान करने वाले अंग्रेजों को पीटने से नहीं चुकते थे।

 

साल 1905 में जब कलकत्ता में प्रिंस ऑफ़ वेल्स का दौरा हुआ। कहा जाता है कि जब प्रिंस ऑफ वेल्स का स्वागत जुलूस निकल रहा था तो एक गाड़ी की छत पर कुछ अंग्रेज़ बैठे हुए थे और उनके जूते खिड़कियों पर लटक रहे थे, गाड़ी में बैठी महिलाओं के बिल्कुल मुंह पर। इसे देख जतिन भड़क गए और उन्होंने अंग्रेजों से उतरने को कहा, लेकिन वो नहीं माने तो बाघा जतिन खुद ऊपर चढ़ गए और एक-एक करके सबको पीट दिया। तब तक पीटा जब तक कि सारे अंग्रेज नीचे नहीं गिर गए।

 

यह घटना प्रिंस ऑफ़ वेल्स के सामने हुई। जब छानबीन करने के लिए कहा गया तो बाघा जतिन बिल्कुल निर्भीक खड़े थे। बाद में अंग्रेजों को ही दोषी पाया गया। इस एक घटना ने पूरी दुनिया को भारतीयों के साथ अंग्रेजों के दुर्व्यवहार के बारे में बता दिया और साथ ही, भारतीयों के मन से अंग्रेजों के डर को भी बहुत हद तक हटा दिया था।

 

अंग्रेज अधिकारी हमेशा ही बाघा जतिन से बचने की कोशिश करते और उन्हें फंसाने के षड्यंत्र रचते रहते थे। साल 1908 में, बंगाल में कई क्रांतिकारियों को मुजफ्फरपुर में अलीपुर बम प्रकरण में आरोपित किया गया, पर फिर भी जतिंद्रनाथ मुखर्जी आज़ाद थे। उन्होंने गुप्त रूप से देशभर के क्रांतिकारियों को जोड़ना शुरू किया।

 

बाघा जतिन ने बंगाल, बिहार, उड़ीसा और उत्तर प्रदेश भर में विभिन्न शहरों में क्रांतिकारियों की विभिन्न शाखाओं के बीच मजबूत संपर्क स्थापित किया। यह वह समय था जब वरिष्ठ नेताओं के सलाखों के पीछे जाने के बाद अंग्रेजों के खिलाफ़ बंगाल क्रांति के नए नेता के रूप में उभरे थे बाघा जतिन। बंगाल में उग्रवादी क्रांतिकारी नीति शुरू करने का श्रेय भी बाघा जतिन को जाता है।

उन्हें 27 जनवरी,1910 को गिरफ्तार किया गया था, हालांकि उनके ख़िलाफ़ कोई ठोस प्रमाण न मिलने के कारण उन्हें कुछ दिनों के बाद छोड़ दिया गया।

जेल से अपनी रिहाई के बाद, बाघा जतिन ने राजनीतिक विचारों और विचारधाराओं के एक नए युग की शुरूआत की। 

 

उनकी भूमिका इतनी प्रभावशाली रही कि क्रांतिकारी रास बिहारी बोस ने बनारस से कलकत्ता स्थानांतरित होकर जतिन्द्रनाथ मुखर्जी के नेतृत्व में काम करना शुरू कर दिया था।
अंग्रेज़ों ने बंग-भंग की योजना बनायी। बंगालियों ने इसका विरोध खुलकर किया। ऐसे समय में जतीन्द्रनाथ मुखर्जी का भी नया रक्त उबलने लगा। उन्होंने साम्राज्यशाही की नौकरी को लात मारकर आन्दोलन की राह पकड़ी। सन 1910 में एक क्रांतिकारी संगठन में काम करते वक्त जतीन्द्रनाथ 'हावड़ा षडयंत्र केस' में गिरफ़्तार कर लिए गए और उन्हें साल भर की जेल काटनी पड़ी। जेल से मुक्त होने पर वह 'अनुशीलन समिति' के सक्रिय सदस्य बन गए और 'युगान्तर' का कार्य संभालने लगे। उन्होंने अपने एक लेख में उन्हीं दिनों लिखा था- "पूंजीवाद समाप्त कर श्रेणीहीन समाज की स्थापना क्रांतिकारियों का लक्ष्य है। देसी-विदेशी शोषण से मुक्त कराना और आत्मनिर्णय द्वारा जीवन-यापन का अवसर देना हमारी मांग है।"


उस वक्त कतकत्ता अंग्रेजों की राजधानी थी, लेकिन अंग्रेज सरकार बाघा जतिन और उनके क्रांतिकारी दल से तंग आ गई थी, उन्हें अब कलकत्ता सुरक्षित नहीं लग रहा था। अंग्रेजों ने अगर अपनी राजधानी 1912 में कलकत्ता से बदलकर दिल्ली बनाई तो इसकी बड़ी वजह ये क्रांतिकारी ही थे, उनमें शायद सबसे बड़ा नाम बाघा जतिन का था।

 

1914 में प्रथम विश्व युद्ध के बाद, उनकी जुगांतर पार्टी ने बर्लिन समिति

और जर्मनी में भारतीय स्वतंत्रता पार्टी के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। भारतीयों को अंग्रेजो के जर्मनी का समर्थन भी बाघा जतिन के नेतृत्व के चलते ही मिला था। हालांकि पार्टी और उनकी गतिविधियों पर ब्रिटिश पुलिस की नज़र थी और इस वजह से, बाघा जतिन को अप्रैल 1915 में उड़ीसा में बालासोर जाना पड़ा।

 

यहां रहने के लिए उन्होंने उड़ीसा तट चुना, क्योंकि यहां पर जर्मन हथियार पहुंचाना आसान था। उन्होंने हथियार इकट्ठा कर अंग्रेजों के ख़िलाफ़ जंग छेड़ने की योजना बनाई थी, लेकिन इस योजना का खुलासा एक एजेंट ने ब्रिटिश सरकार के सामने कर दिया। इसके बाद ब्रिटिश पुलिस चौकन्नी हो गई थी।

जैसे ही जर्मनी के साथ जतिन की भागीदारी के बारे में ब्रिटिश अधिकारियों को पता चला, उन्होंने तत्काल कार्यवाही से गंगा के डेल्टा क्षेत्रों, उड़ीसा के चटगांव और नोआखाली तटीय क्षेत्रों को सील कर दिया। पुलिस खुफिया विभाग की एक इकाई को बालासोर में जतिन्द्रनाथ मुखर्जी के ठिकाने की खोज करने के लिए भेजा गया।

 

बाघा जतिन को अंग्रेजों द्वारा की गई कार्यवाही के बारे में पता चला और उन्होंने अपने छिपने का स्थान छोड़ दिया। उड़ीसा के जंगलों और पहाड़ियों में चलने के दो दिनों के बाद वे बालासोर रेलवे स्टेशन तक पहुंचे। लेकिन अब न केवल ब्रिटिश बल्कि वहां के गांववालों को भी बाघा जतिन और उनके साथियों की तलाश थी, क्योंकि ब्रिटिश सरकार ने ‘पांच डाकुओं’ के बारे में जानकारी देने वाले को इनाम देने की घोषणा की थी।

 

9 सितंबर 1915 को जतिन्द्रनाथ मुखर्जी और उनके साथियों ने बालासोर में चाशाखंड क्षेत्र में एक पहाड़ी पर बारिश से बचने के लिए आश्रय लिया। हालांकि, चित्ताप्रिया और अन्य साथियों ने बाघा जतिन से आग्रह किया कि वे वहां से निकल जाएं। लेकिन जतिन ने अपने दोस्तों को खतरे में अकेला छोड़कर जाने से इनकार कर दिया।

 

इन पांच क्रांतिकारियों और ब्रिटिश पुलिस के बीच डेढ़ घंटे तक चली मुठभेड़ में अनगिनत ब्रिटिश घायल हुए तो क्रांतिकारियों में चित्ताप्रिया रे चौधरी की मृत्यु हो गई। जतिन और जतिश गंभीर रूप से घायल हो गए थे और जब गोला बारूद ख़त्म हो गया तो मनोरंजन सेनगुप्ता और निरेन पकड़े गए।

 

बाघा जतिन को बालासोर अस्पताल ले जाया गया, जहां उन्होंने 10 सितंबर, 1915 को अपनी अंतिम सांस ली। लोग मानते हैं कि यदि बाघा जतिन की योजना सफ़ल हो गई होती तो भारत शायद 1915 में ही स्वतंत्र हो जाता।


क्रन्तिकारी बाघ को सलाम

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