लूट के लिए धार्मिक नारों के उपयोग नया नही है।

बात पुरानी है, और कम ही लोग जानते हैं।



असल मे ये अंग्रेजो के दौर की पुरानी श्रुति है। वह ठगों का युग था और दिल्ली के आसपास के इलाके में ठगों की बादशाहत चलती थी। ठग बेहद शातिर और चालाक होते, वेश बदलने में माहिर। गिरोह में काम करते।



व्यापारियों, तीर्थयात्रियों और दूसरे यात्रा करने वालो के कारवां चला करते और उसमें ये ठग खुद भी भलेमानुस का रूप धरकर शामिल हो जाते। पूरा गिरोह ही कारवां में शामिल होता, पर सारे लोग एक दूसरे से अजनबी बने रहते।



ठगों की अपनी भाषा होती, कोड वर्ड्स होते। यह सिर्फ ठग ही समझते। कई बार इनका दूसरा दल आगे कहीं घात लगाकर इंतजार करता। तो जब कारवां निर्दिष्ट स्थान पर पहुचने को होता, कोई ठग जोर से चिल्लाता - दाss मोssदर sss...। दामोदर का मतलब, की बड़े दाम (वैल्यू) के उदर (पजेशन) वाला क्लाइंट आ रहा है। लूट के लिए तैयार रहो।



कारवां और नजदीक आ जाता, तो फिर चिल्लाया जाता- ना ss रा ss यण!!! याने नर (शिकार) अब बेहद नजदीक आ गया। और फिर अंतिम चिल्लान होती - हरे sss नारायणsss । याने टूट पड़ो, और सब कुछ हर लो।

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तो लूट के लिए धार्मिक नारों के उपयोग नया नही है। कारवां समझता कि साथी तीर्थयात्री पर प्रभु का नाम ले रहा है। कई बार तो वह खुद भी जोर जोर से दामोदर, नारायण और हरे नारायण का जाप करती। खैर ..



ठगों की खासियत यह थी, की वे रुमाल के फंदे से इंसान की जान ले लेते। लूट बड़ी हो, छोटी हो। शिकार को जिंदा छोड़ना उसूल के खिलाफ था। तो ठगों के जाल में फंसने पर माल असबाब देकर जिंदा बचना मुमकिन नही था। जाहिर है, ठगों का टेरर काफी था।

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दिल्ली में रायसीना हिल्स से कुछ दूरी पर एक बरगद का पेड़ था। श्रुति है कि उस बरगद के पेड़ के नीचे सारे ठग, लूट के माल का बंटवारा किया करते थे। कालांतर में उसी जगह पर, आधुनिक युग की एक पोलिटिकल पार्टी का सात सितारा मुख्यालय बना।



जमीन की तासीर ही कुछ ऐसी है। बरगद की छांव रही हो या एसी की ठंडी हवा, काम तो आज भी वही होता है।
Manish Singh