लगभग साठ साल हो गए
कविता को मेरे साथ
मैंने उसे छोड़ दिया था
उसने मुझे नहीं छोड़ा
पता भी नहीं था
बेताल की तरह लदी रही
छेड़ती रही,गुदगुदाती रही
कोंचती रही,परेशान करती रही
बच्ची की तरह
शरारतें भी करती
एक दिन मैंने उसे झटक दिया
किसी भारी पत्थर सा उठाया
और गाँव के सब से पुराने और
गहरे कुंए में फेंक आया
और निश्चित हुआ
घर दुआर समाज दुनिया में
मगन हुआ,ख़ुश हुआ कि
क्या पड़ा है कविता में
उम्र गुजरने लगी,कुछ फुर्सत हुई
लगा कंधे पर बोझ-सा है
हाथ लगाया तो उसने मेरे हाथ
पकड़ लिया और कलम थमा दी
मैं समझ गया था कि यह कविता ही थी
आश्चर्य कि सालों लदी रही
मुझे पता भी नहीं चला
क्या खाती रही,क्या पीती रही
या भूखी रही,बीमार रही क्या
मुझे लगा कि बीमार तो मैं रहा था
कविता बिना भी क्या जीना
बिन कविता सब सून
मैंने उसे उतार लिया
साथ ले आया
कृतज्ञ हुआ,गलती मानी
तब से कविता मेरे साथ है ॥
प्रमोद बेड़िया