झारखंड में माओवादियों के प्रवेश की कहानी -4


                          नक्सली संगठनों से भिन्न हैं चौर खौफनाक हैं माओवादी


बुर्जुआ राजनीतिक दलों और पुलिस प्रशासन की नजर में उग्रवादी, आतंकवादी, नक्सली और माओवादी सभी एक हैं. उनकी नजर में तो यथा स्थितिवाद का विरोध करने वाला हर आदमी नक्सली है. लेकिन इन सबमें फर्क है. सबों के राजनीतिक दर्शन और लक्ष्यों में अंतर है. मोटे रूप में कहा जाये तो देश में सक्रिय उग्रवादी और आतंकवादी संगठन देश का विखंडन चाहते हैं, अलग देश की मांग करते हैं.



नक्सली संगठन के रूप में चिन्हित संगठन, एमसीसी या पिपुल्स वार ग्रुप जैसे संगठन अलगावादी संगठन नहीं और न वे अलग देश की मांग करते हैं. वे व्यवस्था परिवर्तन की बात करते हैं. सामाजिक बदलाव चाहते हैं. हालांकि वे भी उग्रवादी तौर तरीकों का और आतंक का सहारा लेते हैं, लेकिन सीमावर्ती क्षेत्रों में सक्रिय उग्रवादियों और आतंकवादियों से वे भिन्न है.


इसी तरह एमसीसी और नक्सली संगठनों के काम करने के तरीके और उनके राजनीतिक दर्शन में भी अंतर है. हां उनके घोषित लक्ष्य मिलते जुलते हैं. वे शोषण मुक्त समाज का निर्माण करना चाहते हैं.


इस बात को सभी जानते हैं कि पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी क्षेत्र में किसानों के सशस्त्र विद्रोह के बाद नक्सलवाद का जन्म हुआ और नक्सलबाड़ी का किसान विद्रोह सन् 68 की परिघटना है. जबकि माओवादी संगठन उसके पहले देश के कुछ पौकेटों में सक्रिय हैं. टुंडी क्षेत्र में ही वे नक्सलबाड़ी क्षेत्र के किसान विद्रोह के पहले से सक्रिय रहे हैं.


एक दूसरा प्रमुख अंतर यह कि सभी नक्सल संगठनों का मूल भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी रही है जो रूस की समाजवादी क्रांति से प्रेरणा ग्रहण कर और माक्र्स एंगल्स व लेनिन को अपना आदर्श मानती है. सन् 64 में कम्युनिस्ट पार्टी की सातवीं कांग्रेस हुई जिसमें भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का विभाजन हो गया. बीटी रणदिवे, ज्योति बसु, नंबूदरीपाद सहित 32 कामरेड भाकपा की राष्ट्रीय परिषद से बाहर हो गये. इन लोगों का आरोप था कि डांगे वर्ग संघर्ष का रास्ता छोड़ कर वर्ग सहयोग की बात करने लगे हैं. चुनाव की राजनीति में पूरी तरह संलग्न हो गये हैं. और इस तरह माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी बनी.


25 मई 1967 को पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग जिले के नक्सलबाड़ी क्षेत्र में किसानों ने सामंती उत्पीड़न के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष किया. उस वक्त पश्चिम बंगाल में माकपा के नेतृत्व में संयुक्त मोर्चे की सरकार थी और माकपा की ही एक बड़ी जमात को यह उम्मीद थी कि माकपा इस सशस्त्र विद्रोह को मदद कर जन आंदोलन की रक्षा करेगी. लेकिन उस वक्त केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी और कांग्रेस की सरकार के निर्देश पर पश्चिम बंगाल की माकपानीत सरकार ने उस आंदोलन को बुरी तरह से कुचल दिया.


इससे विक्षुब्ध होकर माकपा के अनेक कामरेड पार्टी से निकल कर आॅल इंडिया को-आर्डीनेशन कमेटी आॅफ कम्युनिस्ट रवेल्युनिस्ट बनायी जिसके नेता कामरेड चारू मजुमदार थे जिसमें सत्यनारायण सिंह, कानू सन्याल सहित पंजाब से लेकर पूर्वोत्तर भारत के अंतिम छोर तक के अनेक नेता शमिल हुये. यह संगठन बाद में सीपीआई एमएल में बदल गयी. कालांतर में उसी से टूट कर सभी नक्सली गुट बने- सत्यनारायण सिंह गुट, संतोष राणा गुट, विनोद मिश्रा गुट आदि. लेकिन माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर इस वंशवृक्ष की शाखा नहीं थी. एआइसीसीआर के गठन के वक्त ही पश्चिम बंगाल के परिमल दास गुप्ता गुट और असित सेन गुट ने माओइस्ट को-आर्डीनेशन संेटर का गठन किया जिसे आज हम एमसीसी के नाम से जानते हैं.


इनका अन्य नक्सली ग्रुप से शुरु से माओ के ‘थ्री वल्र्ड थ्योरी’, ‘इंडीवीजुअल टेरोरिज्म और इंडीवीजुअल एनहेलेशन’, लोकसभा और विधनसभा चुनाव में हिस्सेदारी, मास आर्गेनाईजेशन आदि को लेकर मतभेद रहे हैं. इसके अलावा इनके काम करने के तरीके में भी अंतर रहा है. नक्सलबाड़ी मूवमेंट के तुरंत बाद जब सीपीआई एमएल का गठन हुआ तो इन सवालों पर उन दोनों के बीच का अंतर कम था. लेकिन नक्सलियों का रूख इन सभी सवालों पर धीरे-धीरे नरम पड़ता गया और वे एमसीसी से भिन्न होते चले गये. नक्सली संगठन जहां लगातार टूट फूट के शिकार होते-होते आज समाप्तप्राय हैं, वहीं कुछ नक्सली गुटों को अपने में समाहित कर एमसीसी आज पहले से ज्यादा खौफनाक और ताकतवर बन गया है.


कामरेड चारू मजुमदार ने जिस नक्सली संगठन को बनाया, उससे भिन्न हैं माओवादी



विनोद कुमार