जनता ने संस्थागत विपक्ष, याने पार्टियों को डिस्क्रेडिट कर दिया है,-प्रश्नकाल की छोड़िये।

प्रश्नकाल की छोड़िये।


प्रश्नकाल यूं भी बेमानी हो चला था। उत्तरों का कोई वजन, सैंकटिटी या विश्वनीयता बची नही। वह तो सन्सद की भी नही बची। और इसमे सरकार का दोष नही, जनता का है।


पार्टियों को उनकी सीट संख्या के आधार पर बोलने के लिए समय मिलता है। हमने विपक्ष को जो औकात बक्शी है, उनको तीन-चार-पांच मिनट मिलते है। इतना तो नमस्कार धन्यवाद में खत्म हो जाता है। इस पर भी, जब विपक्ष बोलने खड़ा हो, तो सत्ता के साढ़े तीन सौ भोम्पू शोर करने लगते हैं। सुनती न सन्सद है, सुनती न जनता है। विपक्ष क्यों सवाल पूछे, किस जनता के लिए लड़े।



जनता ने संस्थागत विपक्ष, याने पार्टियों को डिस्क्रेडिट कर दिया है, खारिज कर दिया है। अब हम अकेले ही अपने अपने स्तर पर सत्ता और विपक्ष है। नागरिक अब सत्ता बनकर व्हाट्सप्प करता है। गुमाश्ता बनकर गाली देता है, "आएगा तो वो ही" और "तब कहां थे" का दम भरता है। बर्बादी को देश के लिए त्याग समझता है।


वह विपक्ष बनकर डिसलाइक करता है, पोस्ट ट्वीट और ट्रेंड करता है। तटस्थता का अभिनय कर स्टोर रूम में छिप जाता है, फिर खुद को गैर राजनीतिक बताकर अत्याचारियों की ओर मुस्कुराकर आंख मार देता है।
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तो जब पान ठेला सन्सद हो गया है, तो सन्सद भी पान ठेला बन गईं.. किं आश्चर्यम? बहसें सुनिए, सन्सद मनोविनोद का अड्डा है। पान ठेले के स्तर की स्पीच, भद्दे हंसी मजाक। इस भवन की वैल्यू किसी आर्कियोलॉजिकल साइट से ज्यादा नही है, जहां जनता के बीच से चुने हुए शोहदे, दीवारों पर "फेंकूँ हेट्स पप्पू" लिखने जाते है ।


तो प्रश्नकाल का रोना न रोइये, प्रश्नकाल से कुछ नही होता। जो होता है, वो पैसे से होता है। पहले सन्सद के पास पैसे आवंटन की ताकत थी। भारत की संचित निधि को व्यय के प्रस्ताव को सन्सद स्वीकृत करती थी। इसे बजट कहते थे।


जीएसटी कॉउंसिल बनने के बाद इसकी यह ताकत खत्म हो गयी। मजा देखिये, सन्सद की ताकत खत्म होने का जश्न सन्सद में ही मनाया गया। दूसरी आजादी कही गयी। आजादी तो थी ये, जश्न भी बनता था। यह सरकार की आजादी थी।


सरकार सन्सद के चंगुल से मुक्त है। बजट सिर्फ आईवाश है। अब पैसे पूरी ताकत जीएसटी काउंसिल के हाथ मे है, और जीएसटी कॉउंसिल केंद्र के हाथ। केंद्र तो डेढ़ हाथ मे पहले ही था। तो अब सन्सद में पास हुए बजट की कोई वकत नही। जब चाहे, भीड़ से पूछा जा सकता है- एक दूं, सौ दूं, हजार दूं, एक लाख करोड़ दूं???


तो जब सन्सद में हमने विपक्ष की औकात नही रखी कि वह सवाल भी पूछ सके। जब सन्सद की सुप्रीमेसी खत्म होने को दूसरी आजादी मानकर जश्न मनाया, हम भी 70 साल के ढहते सिस्टम को देख ताली थाली बजाते रहे। तो अब सवाल पूछकर क्या होगा? अब जो हो रहा है, उसे खुशी से स्वीकार कीजिये। अभी तो आगाज है, मीलों आगे जाना है।


सन्सद की सीढ़ियों पर गिरकर माथे से लगाना याद है??


गोडसे ने भी गोली मारने के पहले पैर ही छुए थे।


 Manish Singh