भारत के सबसे ज्यादा पतन का समय था अठाहरहवीं शताब्दी का ।इसी शताब्दी में भारत की प्रत्यक्ष गुलामी शुरु हुई , और शताब्दी के अंत तक (१७९९, टीपू सुल्तान की पराजय) भारत के बहुत बड़े हिस्से पर अंग्रेजों का वर्चस्व स्थापित हो गया था । इस शर्मनाक शताब्दी के बारे में एक संक्षिप्त जानकारी सबको होनी चाहिए । इतिहास की किसी अच्छी पुस्तक में साठ-सत्तर पृष्ठ पढ़कर भी इसके बारे में समझ बन सकती है । इस विषय पर सबसे अच्छी किताब शायद पण्डित सुन्दरलाल की ” भारत में अंग्रेजी राज ” है ।जब हम कहते हैं कि अठाहरवीं शताब्दी में भारत की प्रत्यक्ष गुलामी शुरु हुई , तो कोई यह तर्क न दे कि उसके पहले मुसलमानों का राज हो चुका था । ऐसी चीजों में, दोनों में फरक न करने पर निष्कर्ष निकालने में बहुत बड़ी गलतियाँ हो सकती हैं । मुसलमान आक्रमणों में भारत की पराजय हुई थी ; लेकिन मुसलमानों के शासनकाल में भारत किसी दूसरे देश का गुलाम नहीं था ।![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEheaqXC6G5BDlt2-ZMy0zzZVMXHvJ07RZnRZHxBWa689aRPxB34qkPjVVcnoAyRYjJgUhab3MEJ5_JyO8bdcm9g90IAh7zLtEvfDtjinMY3SLxbX3rWLUi0wwZS11ctUCXw0PO9-Ui36cM/)
अठारहवीं सदी के बारे में निम्नलिखित बातें समझने की जरूरत है । अंग्रेजों के शासन में (१९४७ तक) भारत की साधारण जनता की जो आर्थिक दशा हुई,उससे बेहतर अठारहवीं सदी में थी । भारत का व्यापार चोटी पर था ; गाँव का किसान कंगाल नहीं था ।लेकिन भारतीय समाज पंगु हो रहा था ; उसमें पूरी तरह जड़ता आ गयी थी । जाति प्रथा में इतनी संकीर्णता और कठोरता आ गयी थी कि जनसाधारण के प्रति शासक और संभ्रांत समूहों का व्यवहार अमानवीय हो गया था । शासक और संभ्रांत वर्गों में ही औरत की स्थिति सबसे ज्यादा अपमानजनक थी , भारतीय उद्योगों में सामर्थ्य था ; लेकिन उनमें लगे हुए लोगों को शूद्र कहकर उन्हें हीन दृष्टि से देखा जाता था । ऐसा समाज यूरोप की आक्रामक जातियों से लड़ नहीं पाया । उन दिनों राजाओं और नवाबों में कुछ स्वाभिमानी और अदम्य लोग भी थे । लेकिन शासकों और संभ्रांतों का सामूहिक चरित्र कायरतापूर्ण और अवसरवादी था । टीपू और सिराजुद्दौला जैसे लोग अपवाद थे (जैसे आज की राजनीति में कहीं – कहीं अपवाद मिल जाएंगे) , लेकिन औसत शासक और औसत सामंत चरित्रहीन था । विद्वानों और बुद्धिजीवियों में किताबी ज्ञान था , किंतु समाज और राष्ट्र को प्रेरित करने के लिए साहसिक विचार नहीं थे। पूरे देश के पैमाने पर अंग्रेजों के खिलाफ़ एक रणनीति नहीं बन पाई । १८५७ तक बहुत विलम्ब हो चुका था । भारतीय समाज के चरित्र की दुर्बलताओं को अंग्रेज समझ गये थे और उसीके मुताबिक अंग्रेजों ने अपनी भारत-विजय की रणनीति बनायी । उन दिनों भी भारत और चीन में उन्नीस-बीस का फर्क था । इसी कारण चीन पर यूरोप का आधिपत्य रहा , लेकिन प्रत्यक्ष शासन नहीं हो सका । जितना गुलाम भारत हुआ , उतना पूर्व एशिया के चीन , जापान आदि देश नहीं हुए ।
इतिहास के इस अध्याय की चर्चा हम इसीलिए कर रहे हैं क्योंकि आज भी उसी तरह का नाटक हो रहा है । आजादी के पचास साल बाद भी भारत के शासक और शिक्षित वर्गों ने सामाजिक चरित्र को बदलने की कोशिश नहीं की ।जनसाधारण और शिक्षित वर्ग की दूरी बढ़ती जा रही है ।नव साम्राज्यवादियों के प्रलोभनों और धमकियों के सामने हमारा शासक वर्ग झुकता जा रहा है । इस स्थिति के बारे में देशवासियों को आगाह करना है ।
gopal rathi