आंदोलित क्यों हैं किसान ?

नए कृषि कानूनों के ख़िलाफ़ देश भर के किसानों में संदेह और बेचैनी है। ऊपर से देखने में तो ये कानून अच्छे ही लग रहे हैं। कहा जा रहा है कि इनसे किसानों को अपने उत्पाद बेचने के लिए मंडियों के अलावा निजी व्यापारियों और कॉरपोरेट घरानों के विकल्प भी उपलब्ध होंगे जिससे उन्हें उत्पादों की ज्यादा क़ीमत मिल सकेगी। यह भी कि उत्पादों के न्यूनतम समर्थन मूल्य और सरकारी मंडियों की व्यवस्था पूर्ववत लागू रहेगी। इस व्यवस्था में कमी यह है कि जब पूंजीपति किसानों के दरवाजे तक पहुंचकर उत्पाद खरीदने लगेंगे तो अपने सामानों की ढुलाई कर कौन किसान मंडियों तक जाना पसंद करेगा ? यह व्यवस्था मंडियों को समाप्त कर देगी। इस बात की कोई गारंटी नहीं कि मंडियों के समाप्त होने के बाद बड़े व्यवसायी मनमाने दामों पर कृषि उत्पादों की खरीद नहीं कर सकेंगे। सरकार को न्यूनतम समर्थन मूल्य को बाध्यकारी और उसके उल्लंघन को कानूनी अपराध घोषित करना चाहिए था। सरकार को कृषि उत्पादों के न्यूनतम समर्थन मूल्य की तरह अधिकतम विक्रय मूल्य भी निर्धारित करने की ज़रूरत थी ताकि किसानों की क़ीमत पर व्यापारी अपनी तिजोरी नहीं भर सकें। अभी तो हो यह रहा है कि किसानों से दो-चार रुपए किलो टमाटर और प्याज खरीदने के बाद उनका कृत्रिम अभाव पैदा कर व्यापारी सौ-सौ रुपये किलो बेच रहे हैं। अगर ये कृषि कानून बनाने के पहले सरकार ने देश के कृषक संगठनों और विपक्षी दलों से भी संवाद कर लिया होता तो ऐसी विसंगतियां शायद नहीं होतीं। अभी तो ऐसा लग रहा है कि ये कृषि कानून किसानों या आमजन के नहीं, बड़े व्यावसायिक घरानों के पक्ष में खड़े हैं।



मैं देश में ज़ारी किसान आंदोलनों के साथ हूं।


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