मूर्तियों का कद- राम मनोहर लोहिया


🔵 राम मनोहर लोहिया ने अपना राजनीतिक जीवन जवाहरलाल नेहरू के सबसे बड़े प्रशंसक के रूप में प्रारम्भ किया था, किंतु स्वतंत्रता मिलने के बाद उन्होंने विपक्ष में रहना पसन्द किया। विपक्ष में रहते हुए वे नेहरू जी की बहुत तीखी आलोचना करते थे। यह आलोचना कभी कभी नैतिक सीमा से भी नीचे चली जाती थी। नेहरू जी के मंत्रिमंडल में एक सुदर्शन और विदुषी महिला तारकेश्वरी सिन्हा भी थीं, जो अक्सर अपनी बात को शेरो-शायरी के माध्यम से कह कर उसका महत्व बढा देती थीं। एक बार उन्होंने लोहिया जी से व्यक्तिगत बातचीत में पूछा था कि आप इतने पढे लिखे, सुसंस्कृत विचारक हैं, पर जब नेहरू जी की आलोचना पर उतरते हैं तो बहुत निचले स्तर पर चले जाते हैं, ऐसा क्यों?
🔵 लोहियाजी ने उत्तर दिया था कि तारकेश्वरी यह मूर्ति पूजकों का देश है, और जनता ने नेहरूजी की भी मूर्ति बना ली है। यह प्रवृत्ति लोकतंत्र के लिए खतरनाक हो सकती है, इसलिए मैं यह मूर्ति तोडऩे के लिए आम बोलचाल की भाषा का सहारा लेकर उनकी आलोचना करता हूं, ताकि लोकतंत्र जिन्दा रहे।
🔵 उनके गैरकांग्रेसवाद से जीवन पाये जनसंघियों ने उनके ही विपरीत मूर्तियों की राजनीति का ही सहारा लेना तय किया। उन्होंने पहले तो इंदिरा गांधी के सामानांतर अटल बिहारी को स्थापित किया और सामूहिक नेतृत्व की जगह अबकी बारी अटल बिहारी का नारा दिया। दूसरा नारा था कि अटल बिहारी कमल निशान, मांग रहा है हिन्दुस्तान। पर उन्हें गठबन्धन की सरकार चलानी थी इसलिए थोड़ा संयम रखना पड़ा, किंतु पूर्ण बहुमत वाली सरकार आने के बाद तो मोदी मोदी, मोदी मोदी, मोदी मोदी, होने लगा।
🔵 दीनदयाल का एकात्म मानववाद किस चिडिय़ा का नाम है यह कोई नहीं जानता किंतु बचपन में मगर मच्छ पकडऩे वाले व इमरजैसी में सन्यासी के कपड़े पहिन कर फोटो खिंचाने वाले मोदी मोदी को सबकी जुबान पर चढा दिया गया। यह इतना चढा दिया गया कि गला घोंट दिये जाने पर भी भेड़ों के मुँह से मोदी मोदी निकलता रहता था।
🔵 उन्हें तो मूर्ति चाहिए थी और उनकी पार्टी के इतिहास में किसी का कद इतना बड़ा नहीं था कि उसकी बड़ी मूर्ति बनायी जा सके सो उन्होंने पटेल को नेहरू विरोधी सिद्ध करते हुए पटेल की मूर्ति बनाने का फैसला किया। यह मूर्ति नेहरूजी तो क्या किसी भी महापुरुष की मूर्ति से बड़ी बनाने की कोशिश की। इस कोशिश में यह मूर्ति इतनी बड़ी बन गयी कि मोदी जी का कद तो उनकी चप्पल के कद के बराबर भी नहीं था। मूर्ति चीन में बनवायी गयी और उसके लिए तीन हजार करोड़ रुपये खर्च किये गये।
🔵 पहले विशालकाय पुतले बनते थे और वे भी रावण के होते थे। अब महापुरुषों के कदों में प्रतियोगिता शुरू हो गयी हैं। मूर्ति के बड़े होने से कद का बड़े होने का सीधा अनुपात मान लिया गया है। रामलला की मूर्ति छोटी थी और उसे बदला नहीं जा सकता था इसलिए उनका मन्दिर बड़ा बनाने की कोशिश हुई। उसे दो मंजिले से तीन मंजिले में बदल दिया गया।
🔵 जब भारतीय लोकतंत्र में यही पैमाना बन गया तो फिर उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी कहाँ पीछे रहने वाली थी। वह तो अमर सिंह के बिना वैसे ही खुद को विधवा महसूस करने लगी थी, सो उसने राम से आगे परसुराम का दामन थामा। उसने कहा कि वो भगवान परसुराम की सबसे बड़ी मूर्ति बनवायेगी। अब बारी दौलत की बेटी मायावती की थी जिसने अब तक हाथियों की मूर्तियां या खुद की मूर्तियां बनवायी थीं, पर उन्हें भी कहना पड़ा कि वह समाजवादी पार्टी की मूर्ति से भी ऊंची परसुराम की मूर्ति लगवायेगी। देखना है कि लखनऊ के नबाबों का पहले आप पहले आप कब तक चलता है।
🔵 इस देश का लोकतंत्र मूर्तियों के कद में फंस कर रह गया है जिसमें जनता और और बौनी होती जा रही है। रामभरोसे कह रहा है कि लोहिया अंतिम मूर्तिभंजक थोड़े ही थे।
 source-#लोकजतन (वीरेन्द्र जैन का स्तम्भ #दर्शकVirendra Jain