मथुरा के केदार (मचल) पहलवान के जीवन से क्या प्रेरणा लें ?


ये दो गुडियाँ हमारे बचपन में खेलने की नहीं आले पर सजाने के लिये थीं। एक विदेशी और एक ठेठ भारतीय। इन्हें माँ ने लखनऊ के अमीनाबाद बाज़ार से सन 1964 के आसपास ख़रीदा था। तब देश में बहुत कम तरह के खिलाने बनते थे। तब से ये हमारे ड्रॉइंग रूम के आले पर सजी रहती थीं।मुरादाबाद का घर (1999 में पापा के साकेत गमन के बाद) 2000 में बेचा। तब तक ये वहाँ सजी रहीं।


इस वर्ष (2020) लॉक डाउन के लम्बे अवकाश पर जब वृंदावन की हमारी भजन कुटीर का सफ़ाई अभियान चला तो ये बक्से में रखी मिली। काल के प्रभाव से काफ़ी जर्जर हालत थीं। तो लगा इन्हें भी ब्रज रज प्राप्ति का सौभाग्य प्रदान किया जाय। तो इन्हें लॉन में खाद के लिए बने गड्ढे में समाधि दे दी। इस तरह बचपन की स्मृति का एक और चिन्ह समाप्त हुआ। यही प्रकृति का नियम है।



आया है तो जाएगा राजा रंक फ़क़ीर ।
इक सिंहासन चढ़ चले,
इक जात है बँधत ज़ंजीर ।।


फिर भी हमें लोभ नहीं छोड़ता । क्या- क्या अनर्थ करवा देता है, इस भ्रम में कि हमें हमेशा यहीं रहना है। देखकर पीड़ा होती है कि ब्रज में ही धर्म और सेवा के नाम पर बड़े-बड़े लोग भी बिना हिचके व बिना बिहारी जी से डरे, कैसे-कैसे घोटाले करते रहते हैं ? शायद उन्हें भ्रम है कि ठाकुर जी की न्याय व्यवस्था भी भारत की न्याय व्यवस्था की ही तरह है।


मथुरा का कौन व्यक्ति केदार पहलवान को नहीं जानता? उनका आतंक दूर-दूर तक फैला था। आसपास के शहरों में ज़मीने क़ब्ज़े करवाने से लेकर कितने ही बड़े कांडों में उनकी सरपरस्ती थी।


जैसे आजकल कुछ लोग सेवा के नाम पर गौशलाएँ क़ब्ज़ा करते हैं, फ़र्ज़ी दस्तावेज बनाकर। इसी तरह केदार पहलवान के गुर्गों ने भी 1990 के आसपास, हमारे रिश्तेदार की, फ़र्ज़ी दस्तावेज़ बनाकर, आगरा के भगवान टाकीज़ के पास एक बड़ी ज़मीन क़ब्ज़ा कर ली। मुझे दिल्ली में खबर लगी तो मैंने उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव और पुलिस महानिदेशक से फ़ोन पर बात की और अगले दिन मैं आगरा पहुँच गया।


वहाँ एलआईयू से पता चलवाया कि इस क़ब्ज़े के पीछे कौन है ? तो केदार पहलवान का नाम सामने आया। वो तब पूर्वी दिल्ली में कांग्रेस के इज़्ज़तदार नेता बन कर रहते थे। दिल्ली और देश पर तब कांग्रेस का राज था।


तो भी मेरे आगरा से फ़ोन करने पर ही डीसीपी पूर्वी दिल्ली ने केदार पहलवान को आधी रात को सोते से उठाकर मेरे पास आगरा भेज दिया। तब मैं मात्र 34 वर्ष का था और केदार शायद 50 के रहे होंगे।


आगरा के सर्किट हाउस में मेरे कमरे में आते ही वे मेरे पैरों में गिरकर बोले "गुरु मोय तो तू अपनों चेला बनाय ले।" तुरंत-फ़ुरत वकील ने उन लोगों से माफ़ीनामा लिखवाया और क़ब्ज़े के पाँचवें दिन हमें ज़मीन वापिस मिल गयी। इस आपराधिक घटना का एक अहम किरदार आज भी ब्रज में ही रहता है और अब मेरा प्रेमी है। फिर तो हर दीपावली को केदार पहलवान छड़ी हाथ में लेकर, करारा सफ़ेद कुर्ता व चूड़ीदार पजामा पहनकर दिल्ली के मेरे आवास पर ब्रजवासी के पेड़े देने आते थे।


बाद में सुना कि उनका प्राणांत घोर कष्ट पाकर हुआ और उन्हें अपनी करनी पर भारी पश्चाताप हुआ। उन्होंने लूटी हुई सारी संपत्ती दान कर दी, तब कहीं जाकर उनके प्राण पखेरू हुए।


जब जागो तभी सवेरा ।


विनीत नारायण
वृंदावन