आदिवासी जननायक
जयपाल सिंह मुंड़ा की कहानी
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विश्व आदिवासी दिवस ( 9 अगस्त )
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नए भारत का नया संविधान आकार ले रहा था. संविधान निर्मात्री सभा में जब भारतीय संविधान को अंतिम रूप दिया जा रहा था और पंडित जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभभाई पटेल, डॉ० राजेन्द्रप्रसाद, बाबा साहेब आंबेडकर एवं सरोजिनी नायडू जैसे दिग्गज नेता जनतंत्र, मौलिक अधिकार व स्वतंत्रता जैसे मुद्दों पर अपने विचार रख चुके थे तब आदिवासी समाज के एक मात्र मुखर सदस्य जयपालसिंह की बारी आई और वे कहने लगे कि ‘मैं उन लाखों अज्ञात लोगों की ओर से बोलने के लिए खड़ा हुआ हूँ जो सबसे महत्वपूर्ण लोग हैं, जो आज़ादी के अनजान लड़ाके हैं, जो भारत के मूल निवासी हैं और जिनको बैकवर्ड ट्राइब्स, प्रिमिटिव ट्राइब्स, क्रिमिनल ट्राइब्स और जाने क्या क्या कहा जाता है. पर मुझे अपने जंगली होने पर गर्व है क्योंकि यह वही संबोधन है जिसके द्वारा हम लोग इस देश में जाने जाते हैं.......हम आदिवासियों में जाति, रंग, अमीरी गरीबी या धर्म के नाम पर भेदभाव नहीं किया जाता, आपको हमसे लोकतंत्र सीखना चाहिए, हमको किसी से सीखने की जरूरत नहीं.’
ये वो वक्त था जब संविधान सभा में देश को संविधान बनाने की प्रकिया चल रही थी. दलित जातियों का मुद्दा खासकर गांधीजी और डा. अम्बेडकर के पूना पैक्ट के बाद तो इतना ज्यादा बड़ा हो चुका था कि संविधान सभा में उनके आरक्षण पर कब की मोहर लग चुकी थी. लेकिन आदिवासियों को लेकर किसी ने जिक्र तक नहीं छेड़ा था. ऐसे में एक आदिवासी नेता जो लंदन की मशहूर ऑक्सफोर्ड यूनीवर्सिटी में पढ़ा था, और जिसमें आदिवासियों के लिए जमीनी लड़ाई से लेकर वैचारिक मोर्चाबंदी तक की प्रतिभा थी. जिस तरह से भारत के मुख्य समाज ने आदिवासियों को ‘अपना’ नहीं माना उसी प्रकार जयपाल सिंह मुंडा ने भी आदिवासी समाज को भारतीय मुख्य समाज का हिस्सा नहीं मानकर पृथक मानव समूह के रूप में लिया.
अपना भाषण जारी रखते हुए संवैधानिक संकल्पों के बारे में उन्होंने आगे कहा ‘हम जंगल के लोग आपके संकल्प को अच्छी तरह समझते हैं. अपने तीस लाख आदिवासियों की ओर से मैं इस संकल्प का समर्थन करता हूँ. इसलिए नहीं कि इसे भारत के राष्ट्रीय कांग्रेस के एक बड़े नेता ने प्रस्तावित किया है. हम इसका समर्थन इसलिए करते हैं क्योंकि यह देश के हर नागरिक की धड़कन और उनकी भावनाओं की अभिव्यक्ति करता है. इस संकल्प के एक भी शब्द के साथ हमारा कोई झगड़ा नहीं है. एक जंगली और एक आदिवासी होने के नाते संकल्प की जटिलताओं में हमारी कोई विशेष दिलचस्पी नहीं है. लेकिन हमारे समुदाय का कामन सेन्स कहता है कि हममें से हर एक ने आज़ादी के लिए संघर्ष की राह में एक साथ मार्च किया है. मैं सभा से कहना चाहूँगा कि अगर कोई देश में सबसे ज्यादा दुर्व्यवहार का शिकार हुआ है तो वह हमारे लोग हैं. पिछले छ: हजार सालों से उनकी उपेक्षा हुई है और उनके साथ अपमानजनक व्यवहार किया गया है. मैं जिस सिन्धुघाटी सभ्यता का वंशज हूँ, उसका इतिहास बताता है कि आप में से अधिकांश लोग, जो यहाँ बैठे हैं, बाहरी हैं, घुसपैठिये हैं जिनके कारण हमारे लोगों को अपनी धरती छोड़कर जंगलों में जाना पड़ा.’
जो कुछ मुंडा जी ने कहा उसकी पुष्टि होती है भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पारित दिनांक 5 जनवरी, 2011 के एक महत्वपूर्ण निर्णय से. इस ऐतिहासिक निर्णय में स्पष्ट कहा गया है कि ‘यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज आदिवासी, जो कि सम्भवतया भारत के मूल निवासियों के वंशज हैं अब देश की कुल आबादी के 8 प्रतिशत बचे हैं, वे एक तरफ गरीबी, निरक्षरता, बेरोजगारी, बीमारियों और भूमिहीनता से ग्रस्त हैं, वहीं दूसरी तरफ भारत की बहुसंख्यक जनसंख्या जो कि विभिन्न अप्रवासी जातियों की वंशज है, उनके साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार करती है.’ फैसले में ‘वर्ल्ड डायरेक्टरी ऑफ माईनोरिटीज एण्ड इण्डीजीनस पुपिल-भारतः आदिवासी (गूगल) लेख का जिक्र करते हुए बताया गया है कि ‘शौर्य के धनी भीलों को 17वीं सदी में निर्दयता से कुचला गया. इनको अपराधी के रूप में पकड़ कर मार दिया जाता था. इनका सफाया करने की भरपूर कोशिश की गई है. कुछ भील जहाँ-तहाँ जंगलों और कंदराओं में छिप गये.’ फैसले में आदिवासियों के बारे में कहा गया है कि ‘वे सामान्यतया अन्य नागरिकों से ईमानदार, चरित्रवान होते हैं. यही वह समय है कि हम इतिहास में उनके साथ हुए अन्याय को दुरूस्त कर सकें.’ आदिवासियों के रूप में भारत के मूलवासियों ने बाह्य आक्रान्ताओं के विरुद्ध सदैव मोर्चाबंदी की. ठेठ आर्य-अनार्य संग्राम श्रृंखला से लेकर ब्रितानी हुकूमत तक इस संघर्ष को देखा जा सकता है. वर्तमान दौर में भी राष्ट्र की प्राकृतिक सम्पदा की रक्षा हेतु आदिवासी यहाँ वहाँ संघर्षरत है. अपनी मातृभूमि के लिए आदिवासी समाज के भीतर प्रतिरोध की दीर्घ परम्परा रहती आई है. भारत के तथाकथित मुख्य समाज से आदिवासियों के ‘पृथकत्व’ एवं ‘प्रतिरोध’ की बात को मुंडा जी ने बहुत सोच समझ कर कहा है जिसे समझने की आवश्यकता है.
भारत के प्राचीन इतिहास में अनेक प्रमाण मिलते हैं जिनसे यह सिद्ध होता है कि सैंधव, गांगेय, सारस्वत के सरसब्ज़ मैदानों में अनेक आदिम समुदाय बसते थे, कालांतर में जिन्हें बाहर से आये आक्रान्ताओं ने जंगल-पहाड़ों में धकेल दिया. सिंधु घाटी की महान सभ्यता के तार मुंडा व मीणा जैसे आदिवासियों से जुड़ते हैं. प्राचीन भारत के महाभारत कालीन 16 जनपदों में जिस मत्स्य गणराज्य का सन्दर्भ मिलता है उसका संबध मीणा आदिवासियों से स्थापित होता है.
जयपाल सिंह मुंडा आगे कहते हैं कि ‘हमारे लोगों की आकांक्षा वे अधिकाधिक सुरक्षाएं नहीं हैं, जिन्हें नेहरू ने संकल्प में रखा है. आज उनकी जरूरत सरकार से सुरक्षा की है. हम कोई अतिरिक्त या विशेष सुरक्षा की मांग नहीं कर रहे हैं. हम बस यही चाहते हैं कि जो नागरिक बरताव सबके साथ हो, वही हमारे साथ भी हो. आदिवासियों को भी बराबर का नागरिक समझा जाये.......मैं आप सब के कहे हुए पर भी विश्वास कर रहा हूँ कि हम लोग एक नये अध्याय की शुरुआत करने जा रहे हैं, स्वतंत्र भारत के नये अध्याय की, जहाँ सभी समान होंगे, सबको बराबर का अवसर मिलेगा और एक भी नागरिक उपेक्षित नहीं होगा......किसी भी सूरत में हम आदिवासियों का हक़-हकूक इस देश पर पहला है, जिसे खारिज़ करने का अधिकार किसी को नहीं है.’
वर्तमान समय में भारत का आदिवासी समाज जिन समस्याओं से जूझ रहा है, संभवत: उनका पूर्वानुमान जयपाल सिंह मुंडा ने भारत के संविधान की निर्मिती की प्रक्रिया के वक्त ही लगा लिया था. इसकी पुष्टि उनके समग्र लेखों, वक्तव्यों एवं झारखण्ड राज्य की परिकल्पना से हो जाती है. यह सारी सामग्री ‘आदिवासीडम’ (‘Adivasidom’) शीर्षक से अश्विनी कुमार पंकज ने हाल ही सम्पादित की है. जयपालसिंह मुंडा एक विचारक, राजनीतिज्ञ, पत्रकार, लेखक, संपादक के साथ हॉकी के विश्वविख्यात खिलाड़ी रहे, जिन्हें वर्ष 1925 में ऑक्सफोर्ड ब्लू’ का अंतरराष्ट्रीय ख़िताब दिया गया. सन 1928 के ऑलंपिक खेलों में स्वर्ण पदक जीतने वाली भारतीय हॉकी टीम के कप्तान रहे हैं. आदिवासी समाज के उस महानायक का जन्म 3 जनवरी, सन 1903 के दिन वर्तमान झारखंड के जिला खूँटी में अवस्थित ग्राम टकरा पहान टोली में हुआ. बचपन में गायें चरते हुए उन्हें ईसाई मिशनरी स्कूल में दाखिला मिला. तत्पश्चात उन्होंने ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा अर्जित की. भारतीय सिविल सेवा में चयनित हुए जहाँ से स्वैच्छिक त्यागपत्र देकर उन्होंने शिक्षक का दायित्व संभाला. रांची के राजकुमार कॉलेज में प्राचार्य बने. सन 1938 में बीकानेर रियासत में वे विदेश मंत्री के पद पर आसीन हुए. देश के विभिन्न अंचलों में भ्रमण करते हुए उन्होंने आदिवासी समाज की दुर्दशा देखी और आदिवासी सरोकारों को लेकर राजनीति में कूद पड़े. उन्होंने आदिवासी महासभा का गठन किया. इसी राजनैतिक संगठन ने झारखंड पृथक आदिवासी प्रान्त की माँग उठाई जो अंतत: फलीभूत हुई. यह इस देश और यहाँ के आदिवासियों अर्थात मूल निवासियों का दुर्भाग्य है कि जयपालसिंह मुंडा के सपनों का झारखण्ड आज विकास और बर्बादी का कुरुक्षेत्र बना हुआ है. छत्तीसगढ़ से लेकर तेलंगाना तक का आदिम दण्डकारण्य खून सना है. और भारत का आदिवासी अस्तित्व के विकट संकट से जूझ रहा है! उनका देहांत भले ही दिनांक 20 मार्च सन 1970 के दिन दिल्ली में हो गया किन्तु इस सबके बावजूद जयपाल सिंह मुंडा आज भी आदिवासी समाज का प्रेरणा-स्रोत है. आशा की जा सकती है कि उनके आदर्शों पर चलता हुआ आदिवासी लोकतान्त्रिक नेतृत्व उभरेगा और इस उत्तराधुनिक दौर में अपनी आदिम अस्मिता की रक्षा करता हुआ आदिवासी समाज विकास के पथ पर अग्रसर होगा.
@ लेखक : तारकेश्वर महतो