मामला कोल खदानों के निजीकरण मात्र का नहीं, यह झारखंड की खनिज संपदा के लूट का मामला है.

कोल ब्लाॅक प्रकरण
यह सिर्फ निजीकरण का मसला नहीं, झारखंडी जनता की खनिज संपदा के लूट का मसला


9 जून और 18 जून को कोल खदानों की नीलामी होनी थी. कोल मंत्रालय के लगातार प्रयास और प्रधानमंत्री के नीलामी प्रक्रिया में खुद उतर जाने के बावजूद अब तक कोल ब्लाकों के लिए खरीदार नहीं मिला है, दूसरी तरफ कोल सेक्टर के निजीकरण के खिलाफ चल रहे स्ट्राईक का भी आज आखिरी दिन है, लेकिन वार्ता का कोई नतीजा नहीं. अब जब प्रधानमंत्री खुद कोल खदानों को बेचने पर अमादा हों तो मंत्री और अन्य अधिकारी इस मामले में क्या कर सकते हैं.



इस बीच अर्जुन मुंडा खुल कर कोल खदानों के निजीकरण का समर्थन कर रहे हैं. उनका कहना है कि इससे मेक इन इंडिया को गति मिलेगी, कोल के क्षेत्र में भारत आत्म निर्भर होगा. कैसे होगा यह समझना मुश्किल है.


वर्तमान में भारत 235 मिलियन टन कोयले का आयात करता है. इसमें से करीबन सौ मिलियन टन प्राईम कोकिंग कोल है. प्राईम कोकिंग कोल, यानि कम राख की मात्रा वाला कोयला. इसका इस्तेमाल स्टील उत्पादन में होता है और इसका भंडार अपने देश में कम है. वर्तमान में सिर्फ बीसीसीएल इसका उत्पादन करती है जो नकाफी है. क्योंकि कोकिंग कोल का भंडार ही कम है. इसलिए मान कर चलिए कि कोकिंग कोल का आयात तो भविष्य में भी होगा.


अब रहा आयातित 135 मिलियन टन सामान्य कोयला. जानकार सूत्रों के अनुसार दक्षिण भारत के राज्य- आंध्र प्रदेश से केरल तक विदेशी कोयले का इस्तेमाल करते हैं. और वजह यह कि जो कोयला कोल इंडिया 800 रुपये टन बेचता है, उसकी कीमत दक्षिणवर्ती राज्यों तक पहुंचने में रेल भाड़ा और अन्य कई तरह के टैक्स जोड़ कर 4000 रुपये प्रति टन तक पहुंच जाता है, जिसकी तुलना में समुद्री तट के बंदरगाहों पर आयातित कोल सस्ता पड़ता है.


कोयले का आयात बंद हो इसके लिए जरूरी है कि रेलभाड़ा और अन्य टैक्स कम हो. साथ ही कोल इंडिया को उत्पादन बढ़ाने का अवसर दिया जाये. लेकिन मोदी सरकार की नीयत तो कोयले की कमी का बहाना बना कर कोल खदानों को बेचना है. जो नये कोल ब्लाॅक बेचे जायेंगे, वे वन क्षेत्र में हैं तो वन मंत्रालय, पर्यावरण मंत्रालय आदि से तरह तरह का क्लियरेंस तो देना ही पड़ेगा. इसी तरह के क्लियरेंस यदि सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी को दे दी जाये तो उत्पादन आसानी से बढ़ सकता है.


आशंका यह है कि आवंटित कोल ब्लाॅकों की आड़ में निजी कंपनिया समीपवर्ती कोल खदानों का कोयला धड़ल्ले से बेचेंगी. सबसे चिंतनीय पहलू यह है कि यह सब सारे हंगामे आदिवासीबहुल जिन इलाकों के कोल भंडारों को लेकर होने जा रहा है, उस क्षेत्र की जनता मूक दर्शक बनी हुई है. याद रखिये, यह मामला कोल खदानों के निजीकरण मात्र का नहीं, यह झारखंड की खनिज संपदा के लूट का मामला है.


विनोद कुमार