शंकर गुहा नियोगी का असली नाम धीरेश था। 1970 के दशक में धीरेश जलपाईगुड़ी से भिलाई छत्तीसगढ़ आये और भिलाई इस्पात संयंत्र (बीएसपी) में बतौर कुशल श्रमिक काम करने लगे।
मजदूरों का समर्थन करने वाले मजदूर हित की बातें करने वाले धीरेश, कम समय मे ही एक मजदूर नेता की तरह पहचानें जाने लगे।
मजदूरों को उनका हक़ बताया उन्हें एकजुट किया धीरेश सामने हो कर लड़े और उनके नेतृत्व में 1977 बीएसपी की पहली हड़ताल हुई।
हड़ताल उनके पहले क्यों नही हुई ? शायद मजदूरों को उनके हक़ उनकी एकजुट शक्ति का दीदार पहले किसी ने कराया ही नही होगा। पहली ही हड़ताल इतनी मज़बूत थी कि प्रबंधन को मज़दूरों के सामने झुकना पड़ा। लेकिन हड़ताल के वजह से धीरेश को उनकी नौकरी से निकाला दिया गया।
लोगो का सोचना था नौकरी चले जाने से धीरेश की मज़दूर क्रांति भी चली जायेगी पर धीरेश कहा रुकने वाले थे। धीरेश की मज़दूर क्रांति की अब और प्रबल हो चुकी थी, वह पूरे छत्तीसगढ़ में घूम घूम कर मजदूरों को उनके हक़ के लिये जागरूक करने लगे।
करीब 4 सालों तक उनका प्रदेश की अलग अलग जगहों में घूमना ज़ारी रहा। 1970-71 के समय वह वापस भिलाई आ गए और तभी अपना नाम बदल शंकर रख लिया।
वह भिलाई के दानी टोला चूना पत्थर खदानों में बतौर मज़दूर काम करने लगे। शंकर के पुराने किस्से नई जगह पर भी मशहूर थे और यहाँ भी उनकी छवि एक मजदूर नेता की तरह ही थी।
यह वह समय था जब बीएसपी की दल्ली राजहरा की लौह अयस्क खदानों में ठेके पर काम कर रहे मजदूरों की दशा बहुत बुरी थी। 14 से 15 घंटो का काम और उसके बदले महज 2 रुपय की मजदूरी। उनका कोई ट्रेड यूनियन नही था। शंकर ने इन मजदूरों के साथ 1977 मे छत्तीसगढ़ माइन्स श्रमिक संघ (सीएमएसएस) का गठन किया। इस संगठन ने मजदूर कल्याण के लिये कई गतिविधिया की। संगठन ने शिक्षा, स्वास्थ, और शराबबंदी जैसे मुद्दों को वचनबद्ध तरीके से अपने कामो में शामिल किया।
छत्तीसगढ़ माइन्स श्रमिक संघ तब देश भर में चर्चा का विषय बना जब 1977 में दल्ली-राजहरा के हज़ारो खदान मजदूरों ने शंकर नियोगी के नेतृत्व में अनिश्चितकालीन हड़ताल कर दी। यह हड़ताल ठेके पर काम करने वाले मज़दूरों की देश मे सबसे बड़ी हड़ताल थी। इसका असर इतना हुआ कि सयंत्र प्रबंधन को मजदूरों की सारी माँगे माननी पड़ी।
खदान में हुई हड़ताल के बाद नियोगी प्रदेश के सबसे बड़े मजदूर नेता के रूप में देखे जाने लगे, उनका बनाया संगठन हर साल बढ़ता गया। भिलाई-दुर्ग की कई निजी कंपनियों के मजदूर भी इस संगठन से जुड़ने लगे।
1990 का समय आते आते नियोगी का संगठन इतना बड़ा हो चुका था कि बड़े बड़े उद्योगपति संगठन की ताकत से घबराते थे। जो असल मे एक डर था उनके पूंजीवादी साम्राज्य के गिर जाने का और उद्योगपतियों ने उस डर को दूर करना चाहा नियोगी को जान से मारने की धमकियों से।
और जिस बात की आशंका थी वही हुआ, 1991 नियोगी हत्याकांड –
28 सितम्बर का दिन सुबह 4 बजे का समय। नियोगी उस दिन देर रात ही रायपुर से लौटे थे। दुर्ग स्थित उनके अस्थाई निवास पर उनकी गोली मार कर हत्या कर दी गई। पल्टन मल्लाह नाम के व्यक्ति ने उनकी हत्या कर दी। नियोगी हत्याकांड में मल्लाह के साथ कुछ उद्योगपतियों को भी आरोपी बनाया गया। लेकिन मल्लाह के अलावा अन्य किसी को दोषी साबित नही किया जा सका।
जब उनकी हत्या हुई सिर्फ 48 वर्ष के थे “शंकर गुहा नियोगी”। वह केवल एक मज़दूर संगठन के नेता ही नहीं, एक चिंतक और सामाजिक कार्यकर्ता भी थे। लोहे से लेकर शराब तक के व्यवसाय से जुड़े उद्योगपतियों से उनकी लड़ाई, श्रम के वाजिब दाम की लड़ाई थी, एक समाज की लड़ाई थी।
दल्ली राजहरा में उनकी अंतिम यात्रा में हज़ारो लोगो की भीड़ थी, जिसमे नारे गूंज रहे थे, – नियोगी भइया ज़िंदाबाद, नियोगी भइया….