शनि और उसके वलय

शनि और उसके वलय


शनि के वलय को जब 1610 में गैलीलियो गैलिली ने अपनी खुद की बनाई दूरबीन से धुंधले रूप में देखा, तब उसने कहा कि शनि अकेला नहीं है। उसके दो और साथी हैं जो उसे घेरे रहते हैं। ये तीनों आपस में एक दूसरे के इतने करीब हैं कि लगभग एक दूसरे को छूते हुए से हैं और एक-दूसरे के प्रति अडिग हैं।


हमारे जीवन में भी कुछ ऐसे साथी होने चाहिए जो हमें छूते हुए से हों। दैहिक और स्थानिक दूरी होते हुए भी हमेशा साथ हों। हर परिस्थिति में अविचल, अडिग हों।


गैलीलियो द्वारा शनि के वलय को देखे जाने की घटना के आसपास ही कॉन्सतैन्तिन नाम की एक चिंतनशील महिला ने देकार्त जैसे दार्शनिक के किसी ग्रंथ पर अपनी टिप्पणी लिख भेजी, तो देकार्त ने कहा कि वे उन सुझावों और सुधारों को समाहित कर स्वयं को धन्य समझेंगे।


देकार्त वही जिसने कहा था कि ‘मैं सोचता हूँ, इसलिए मैं हूँ’। जड़ और चेतन की आधुनिक दार्शनिक उलझनों को सुलझाने का एक बौद्धिक प्रयास था यह। जिससे सुलझा कुछ नहीं, क्योंकि यह केवल मन, बुद्धि और अहंकार के स्तर पर ही रहा।


इधर कविहृदयी कॉन्सतैन्तिन ने अपने गर्भ से क्रिस्तियान नाम के बालक को जन्म दिया। क्रिस्तियान हायजेन्स ने गैलीलियो की मृत्यु के लगभग 10 साल बाद शनि के साथियों का रहस्य सुलझाते हुए कहा कि ये एक रिंग है, वलय है। यह शनि को छूता नहीं है। यह तो कोई ‘इक्लिप्टिक’ जैसा लगता है।


इक्लिप्टिक यानी कोई परिक्रमा पथ, कोई क्रांतिवृत्त, कोई ऐसा आभासी यात्रा मार्ग जिसपर चलते हुए घूम-फिर कर हम एक ही स्थान पर आ जाते हैं। जीवन-चक्र भी तो वैसा ही है न! जीवन-मृत्यु का चक्र भी शायद वैसा ही है। चाहे ‘मेरी-गो-राउंड’ कह लें या ‘बैक टू स्क्वायर वन’ कह लें।


गैलीलियो और क्रिस्तियान के लगभग दो सदी बाद रिचर्ड प्रॉक्टर नाम का युवक ग्रहों और सितारों की दुनिया में खोया रहने लगा। जब वह छोटा था तो बहुत ही नाजुक था, कोमल था। पिलपिला था ऐसा जान-बूझकर नहीं कहा। पिता जल्दी ही सितारों की ओर चल पड़े। माँ ने ही उसे नाजों से पाला था।


प्रॉक्टर ने उस दौर में शनि और उसके वलय पर सबसे महत्वपूर्ण और शोधपरक पुस्तक लिखी- ‘सैटर्न एंड इट्स सिस्टम’। संलग्न तस्वीर में ऊपर जो शनि का चित्रण है वह प्रॉक्टर का ही किया हुआ है।


प्रॉक्टर के जीवन में भी बड़े उतार-चढ़ाव रहे। आर्थिक तंगी रहती थी। उसकी एक किताब ‘हैंडबुक ऑफ द स्टार्स’ को एक नामी प्रकाशक ने छापने से इन्कार कर दिया था। बाद में उसी किताब के बीसवें संस्करण तक प्रकाशित हुए।


प्रॉक्टर ने अपने दुःख के दिनों को याद करते हुए कहा था कि उसे अवैज्ञानिक श्रम करना पसंद नहीं था, लेकिन फिर भी अपनी वैज्ञानिक खोजों को जारी रखने के लिए यदि उसे सड़कों पर पत्थर तोड़ने का भी काम करना पड़ता, तो वह स्वेच्छा से करता।


बाद में मंगल ग्रह के एक क्रेटर का नाम उसके ही नाम पर ‘प्रॉक्टर’ रखा गया। और चांद के एक क्रेटर का नाम उसकी बेटी मैरी प्रॉक्टर के नाम पर रखा गया, जो अपने पिता की तरह ही ज़मीन पर बैठे ही सितारों की दुनिया की सैर करती रहती थी।


आधुनिक मनुष्यों को मानवीय महानता का चित्रण सितारों और नक्षत्रों के रूप में करना अच्छा लगता है। कोई अचानक ही गुमनामी से निकलकर ‘स्टार’, ‘मेगास्टार’, ‘सुपरस्टार’ आदि बन जाता है या बना दिया जाता है।


कोई उपमाओं में ‘ध्रुवतारा’ बन जाता है, कोई ‘जाज्वल्यमान नक्षत्र’ बन जाता है। कोई चीज जो मनुष्यों की पहुँच से बहुत दूर है, चमकदार है, उसे लुभाता है। वह वैसा ही बन जाना चाहता है।


कहता तो वह है ही कि वह उससे ही बना है। स्टारडस्ट से बना है। स्टारडस्ट ऐसे ही चमकदार पिण्डों में चैतन्य की भावकल्पना जैसा है। लेकिन जो दूर है, अज्ञात या अल्पज्ञात जैसा है, वह उसे लुभाता है। बुलाता है।


दूरबीन से चांद, सितारों को देखना सचमुच अच्छा लगता है। अव्यक्त को भी अच्छा लगता है अपनी छोटी-मोटी दूरबीन से प्रकृति को, आकाश को निहारना।


लेकिन दूरबीन से कहाँ तक निहारेंगे अनंत को! निहारते हुए चमत्कृत होगें, खुश होंगे, आह्लादित होंगे। और निहारेंगे, और ज्यादा निहारेंगे, लगातार निहारेंगे, लेकिन हारेंगे। अनंत से हारेंगे।


हारेंगे, क्योंकि हम जड़ माध्यमों से जड़ की अनंत यात्रा पर जाना चाहते हैं। इसलिए जड़ तक ही पहुँचते हैं। क्या जड़ से चैतन्य तक की यात्रा बाह्य साधन मात्र से संभव है? यदि नहीं, तो फिर वह चैतन्य कैसे जागृत हो!


वह जागृत हो जाए, तो जो बाहर है, दूर है, अनंत है, वही सब भीतर भी है। जितना बाहर है, उतना ही भीतर भी है। तभी तो ऋषि चरक ने कहा होगा- ‘यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे।’ किसी दूसरी भाषा में या भाव में हम इसे ‘एज़ विदीन, सो विदाउट’ भी कह लें। लेकिन बात तो वही है।


हम चैतन्य सितारों को सितारों से मिलने की तमन्ना है। सितारों में मिलने की तमन्ना है। कितना अजीब है न? लेकिन तमन्ना तो है, उसका क्या करें! कम है, ज्यादा है, अच्छा है या बुरा है, यह नहीं कह सकते। लेकिन यदि तमन्ना है, तो तमन्ना जो न कराए सो थोड़ा।


लेकिन फिर भी, आत्मतत्व की सांसारिक और ऐकांतिक जीवन-यात्रा में भी आस-पास रहकर चक्कर काटते रहनेवाला कोई साथी हो तो बुरा नहीं। बिल्कुल वैसे ही जैसे शनि और उसके वलय।


~अव्यक्त, 19 जून, 2020🙏