सत्तासीन राजनेताओं द्वारा अपने विरोधियों को लम्बी अवधि तक कारागार में निरुद्ध नहीं करना चाहिए। सियासी सहिष्णुता का यही तकाजा है। यदि अपराध नृशंस हो, तो बात दीगर है| उत्तर प्रदेश में सदा ऐसी ही उदार परिपाटी रही है। सिवाय इमर्जेंसी (1975-77) वाले फासिस्ट इन्दिरा युग के। अर्थात् सहिष्णुता ही लोकतंत्र का सौष्ठव है। इसे नष्ट नहीं करना चाहिए।
यहाँ संदर्भ कांग्रेस नेता अजय कुमार लल्लू का है| वे लम्बी अवधि से कैद में हैं। कम से कम उनकी जमानत की मुखालिफत तो नहीं होनी चाहिए। याद रहे सत्ता एक तवा की मानिन्द है। उस पर रोटी की भांति पार्टियाँ भी पलटती रहती रहती हैं। यही जिन्दा कौमों की निशानी है।
स्वतंत्रता के पश्चात यही अपेक्षित था कि बापू का दिया सत्याग्रह वाला अस्त्र आम उपयोग में मान्य रहेगा। अन्याय के विरुद्ध| इसीलिए (प्रमुख प्रतिपक्ष) सोशलिस्टों ने फावड़ा और पहिया को अपने लाल झण्डे का चिन्ह बनाया था। उसमें जेल को जोड़ दिया था। मगर जवाहरलाल नेहरू का ऐलान था कि मताधिकार मिल गया, अतः सत्याग्रह अब बेमाने है।
मगर जहाँ संख्यासुर के दम पर सत्तासीन दल निर्वाचित सदनों को क्लीव बना दे, असहमति को दबा दे, आम जन पर सितम ढायें, तो मुकाबला कैसे हो? इसीलिए लोहिया ने गांधीवादी सत्याग्रह को सिविल नाफरमानी वाला नया जामा पहना कर एक कारगर अस्त्र में ढाला था। इसमें वोट के साथ जेल भी पूरक बन गया था। उनका विख्यात सूत्र था, “जिंदा कौमें पाँच साल तक इंतजार नहीं करतीं।’’ यही सिद्धान्त लियोन ट्राटस्की की शाश्वत क्रान्ति और माआं जेडोंग के अनवरत संघर्ष के रूप में प्रचारित हुआ था। लोहिया ने इतिहास में प्रतिरोध के अभियान की शुरुआत भक्त प्रह्लाद और यूनान के सुकरात, फिर अमेरिका के हेनरी डेविड थोरो में देखी थी। बापू ने उसे देसी आकार दिया था। लोहिया की मान्यता भी थी कि प्रतिरोध की भावना सदैव मानव हृतंत्री को झकझोरती रहती है, ताकि सत्ता का दम और दंभ आत्मबल को पंगु न बना दे।
स्वाधीन लोकतांत्रिक भारत में सत्याग्रह के औचित्य पर अलग-अलग राय व्यक्त होती रही है। जवाहरलाल नेहरू ने प्रधानमंत्री बनते ही निरूपित कर दिया था कि स्वाधीन भारत में सत्याग्रह अब प्रसंगहीन हो गया है। उनका बयान आया था जब डॉ. राममनोहर लोहिया दिल्ली में नेपाली दूतावास के समक्ष सत्याग्रह करते (25 मई 1949) गिरफ्तार हुए थे। नेपाल के वंशानुगत प्रधानमंत्री राणा परिवार वाले लोग नेपाल नरेश त्रिभुवन को कठपुतली बनाकर प्रजा का दमन कर रहे थे। इसका विरोध करने पर वे दिल्ली जेल में डाल दिए गए| ब्रिटिश और पुर्तगाली जेलों में सालों कैद रहने वाले लोहिया का विश्वास था कि आजाद भारत में उन्हें फिर इस मानवकृत नरक में नहीं जाना पडे़गा । मगर प्रतिरोध की कोख से जन्मा राष्ट्र उसी कोख को ठोकर लगा चूका था। अतः आजादी के प्रारम्भिक वर्षां में ही यह सवाल उठ गया था कि सत्ता का विरोध और सार्वजनिक प्रदर्शन तथा सत्याग्रह करना क्या लोकतंत्र की पहचान बने रहेंगे अथवा मिटा दिए जाएंगे? लंम्बी अवधि तक सत्ता सुख भोगने वाले कांग्रेसियों को छठी लोकसभा में विपक्ष में (1977) आ जाने के बाद ही एहसास हुआ था कि प्रतिरोध एक जनपक्षधर प्रवृत्ति है। इसे संवारना चाहिए। यह अवधारणा विगत वर्षों में खासकर उभरी है, व्यापी है। इसके अजय कुमार लल्लू जीवंत उदहारण हैं|
याद कीजिये पैंतालीस वर्ष पहले (25 जून 1975) यही प्रतिरोध की आवाज इमर्जेंसी (1975-77) के दौरान कुचल दी गयी थी| मीडिया सरकारी माध्यम मात्र बन गया था| अधिनायकवाद के विरोधी जेलों में ठूंस दिए गए थे| समूचा भारत गूंगा बना दिया गया था| हालाँकि उसके कान और आँख ठीक थे| फिर सत्ता का पासा पलटा| दूसरी आजादी आई| लोकनायक जयप्रकाश अँधेरे को हटाकर प्रकाश लाये| लोकशाही लौटी| हम श्रमजीवी पत्रकारों का सरोकार इसीलिए हर विप्लव, विद्रोह, बगावत, क्रांति, उथल-पुथल, जनांदोलन, संघर्ष, असहमति से होता है| वे सब सभ्यता को आगे ले जाते हैं|
K Vikram Rao
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