लोहिया : एक आख्यान-26

लोहिया : एक आख्यान
(Distinguished People talking about Lohia)
रेवती कांत सिंह लिखते हैं-26- डॉक्टर साहब अपने व्यवहार से किसी को भी मोह लेते थे। और, वह भी इस प्रकार से कि वहआदमी हमेशा के लिए उनका श्रद्धालु हो जाए। इसका बहुत बड़ा प्रमाण मिला था अक्टूबर, 1967 में, डॉक्टर साहब की बीमारी के समय। रीवां की वह पानवाली तथा दिल्ली का वह टैक्सी ड्राइवर। डॉक्टर साहब को कम-से-कम मैंने कभी पान खाते नहीं देखा था। फिर भी आदमी तो मौजवाले थे न। मौज में आ गये और कभी रीवां में एक बूढ़ी पानवाली से पान खा लिया। लेकिन वह पान खाना भी ऐसा जैसे विदुर के घर कृष्ण ने साग खा लिया। वह पानवाली हो गई डॉक्टर साहब की भक्त। जब डॉक्टर साहब की बीमारी की खबर उसने सुनी तो एकमात्र अपनी रोटी का सहारा - दुकान बंद करके चल पड़ी दिल्ली की ओर । दिल्ली के उस मनहूस विलिंग्डन अस्पताल के हाते में, आंगन में, वह बूढ़ी पानवाली बैठी रहती थी और बराबर हाथ जोड़कर डॉक्टर साहब की जिंदगी के लिए भगवान से प्रार्थना करती रहती थी। जब कोई कह देता कि डॉक्टर साहब को अभी कुछ आराम है तो खुशी से उसका चेहरा चमक उठता, और यदि कोई बीमारी बढ़ जाने की खबर देता तो उसका चेहरा उत्तर जाता था । डॉक्टर साहब ने अपने को आम जनता में बिल्कुल एकाकार कर लिया था।



यद्यपि इस प्रकार के हजारों उदाहरण उनकी जिंदगी में मिलते हैं, जो यों तो अपने-आप में अत्यंत ही महत्वहीन लगते हैं, मगर उन छोटी-छोटी बातों से ही आदमी का व्यक्तित्व निखरता है। 1965 में 10 अगस्त को गिरफ्तार होकर हम लोग हजारीबाग केंद्रीय कारावास में पहुंचे थे। चूंकि डॉक्टर साहब की बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका सर्वोच्च न्यायालय में विचारार्थ स्वीकृत हो चुकी थी, इसलिए 20 अगस्त को डॉक्टर साहब को हजारीबाग से दिल्ली ले जाया गया। जब वे वार्ड से विदा होने लगे तो हम राजनीतिक कैदियों से मिलने से पहले, जिन्हें जेल की भाषा में 'बाबू कैदी' कहा जाता है, उन्होंने परिचारकों से, जो बाबू कैदियों की सेवा के लिए साधारण कैदियों में से ही नियुक्त होते हैं, मिलना पसंद किया। सबसे पहले वे उस सेल में गए, जिसमें वार्ड का सफैया - योगी हरि रहता था। डॉक्टर साहब को देखकर जैसे ही योगी अपने सेल से बाहर आया, डॉक्टर साहब ने उसे पकड़कर अपनी छाती से लगा लिया और कहने लगे - 'जा रहा हूँ, पता नहीं फिर हम लोगों की भेंट होगी कि नहीं।' योगी डॉक्टर साहब के आलिंगन में खड़ा अविरल रो रहा था और डॉक्टर साहब उसकी पीठ थपथपा रहे थे। लगता था जैसे परिवार के दो सदस्य आपस में बिछुड़ रहे हों। उसके बाद डॉक्टर साहब ने सभी परिचरों - पनिहा, रसोइया, पहरा, मेट- को गले लगाया और बाद में हम लोगों की बारी आई, जिनमें किसी की पीठ थपथपाई, किसी को प्यार की चपत लगाई तो किसी से सिर्फ नमस्कार ही किया।


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