लोहिया : एक आख्यान-25

लोहिया : एक आख्यान
(Distinguished People talking about Lohia)
लाडली मोहन निगम लिखते हैं-25- सितंबर, 1967 के अंतिम दिनों, 29 या 30 सितंबर को, डॉ. लोहिया की प्रोस्ट्रेट ग्रंथि का ऑपरेशन हुआ। 24 अक्टूबर को वे विदेश जाने वाले थे। मुझे उनके ऑपरेशन का पता नहीं था। उन दिनों देश में नौ राज्यों में संविद (संयुक्त विधायक दल) सरकारें थीं। मुझे यह भी पता चला कि उनके कुछ अंतरंग लोगों ने (जिनमें विदेशी भी थे) विदेश में ऑपरेशन कराने का सुझाव दिया था, लेकिन उन्होंने कहा कि 'हम आज विदेश का अनाज खाते हैं, तो क्या इलाज भी विदेश में होगा? मरना हैं तो अपने देश के डॉक्टरों के हाथों ही मरना बेहतर होगा।' शल्यक्रिया में कुछ लापरवाही हुई थी जो कि जानलेवा साबित हुई। अपने जीवन के अंतिम 10-12 दिन वे मौत से लगातार जूझते रहे। डॉक्टर उनकी इच्छा शक्ति देखकर हैरान थे। तीसरे रोज उनकी हालत इतनी बिगड़ी कि उनको देश के किसी और हिस्से में ले जाना संभव नहीं था, न ही पुनः ऑपरेशन करके गलती सुधारी जा सकती थी। देश के बड़े-बड़े डॉक्टर आए। विदेश के भी विशेषज्ञ आए। रह-रहकर डॉक्टर साहब सन्निपात की अवस्था में पहुंच जाते थे। अर्धचेतन व सन्निपात की अवस्था में भी जब कभी बड़बड़ाते या बोलते रहते, उस समय भी उनके मुंह पर हमेशा देश की समस्याओं का ही जिक्र रहता, मसलन बेमुनाफे की खेती पर लगान का क्या हुआ, फलां कार्यक्रम सरकार पूरा कर रही है या नहीं। ऐसी गंभीर अवस्था के उन क्षणों में भी ऐसी असम्बद्ध बातें बोलते रहते थे, जिनको समझ पाना परिचर्या में लगे हुए के लिए असंभव था। शायद जो कुछ भी बोल रहे थे, यदि वह टेप किया जाता तो देश कुछ निष्कर्ष निकाल सकता था या उससे कुछ निष्कर्ष निकाला जा सकता था।


जिस बात ने मेरे मर्म को छुआ वह यह थी कि अचेतन अवस्था में बोलते या बड़बड़ाते हुए भी उन्होंने कभी भी अंग्रेजी भाषा का इस्तेमाल नहीं किया, क्योंकि उन्होंने देश के विकास के लिए यह संकल्प लिया था कि जब तक अंग्रेजी रहेगी देश उठ नहीं सकता। अमूमन वे तीन भाषाएँ बोलते- या तो जर्मन, या बंगला या हिंदी। बंगला उनके बचपन के साथ जुड़ी हुई थी। गो कि पैदा वे उत्तरप्रदेश (जिला फैजाबाद, अकबरपुर) अवध में हुए थे, लेकिन उनका बचपन का कुछ समय बंगाल में बीता था। जर्मन उनकी शिक्षा व डॉक्टरेट की डिग्री की भाषा थी। हिंदी उनकी मातृ भाषा थी। गोकि अंग्रेजी का उनका ज्ञान विपुल था, लेकिन उन्होंने सोचा कि आजाद हिंदुस्तान में अंग्रेजी हिंदुस्तान की प्रगति एवं समाज के विकास में बाधक है। वह गरीबों को ऊपर उठने से रोकती है। यह जबान रोटी और रोजगार के साथ जुड़ी है। तब से उन्होंने अंग्रेजी के सार्वजनिक इस्तेमाल का सैद्धान्तिक विरोध किया। और जब खुद इस सिद्धांत को प्रतिपादित किया तो वे इसका कैसे इस्तेमाल करते? लेकिन सबसे अधिक ताज्जुब मुझे तब हुआ जब अचेतन अवस्था में भी उन्होंने अंग्रेजी का इस्तेमाल नहीं किया था। यह एक ऐसे साधक के लिए ही संभव था, जो अपने सिद्धांतों के प्रति सिर्फ चेतन रूप में ही समर्पित नहीं होता, वरन उन्हें अपने अचेतन में भी उतार लेता हैं। दूसरी बात, जब मनुष्य घोर पीड़ा से गुजर रहा होता है तब उसको अपने लोग व ईश्वर याद आते हैं। विकट पीड़ा के क्षणों में भी जब वे मौत से जूझ रहे थे, उनके मुंह से एक बार भी भगवान का नाम नहीं निकला और न उन्होंने माता-पिता को याद किया। ऐसे क्षणों में भी आसपास खड़े लोगों से यही पूछते रहे कि उत्तर प्रदेश की सरकार ने बेमुनाफे की खेती पर लगान खत्म किया कि नहीं, या इतिहास की बात कि रजिया को उसके सूबेदार ने ही मारा। पता नहीं इस बात से उनका क्या आशय था। जो कुछ भी मेरी जानकारी है उसके आधार पर मैं इस बात का एक ही मतलब निकाल सका हूँ कि सत्ता के केंद्र में रजिया के पहले कोई महिला सत्तारूढ़ नहीं हुई। और जब हुई तो पुरुषोचित अहं उसको बर्दाश्त नहीं कर सका और उसके ही लोगों से उसको बगावत मिली।
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