मशहूर इज़राइली इतिहासकार और दार्शनिक युवाल नोहा हरारी ने महज़ दो महीने पहले ही अपने एक लेख के जरिए भविष्यवाणी की थी कि कोरोना महामारी के चलते दुनिया भर में लोकतंत्र सिकुड़ेगा, अधिनायकवाद बढ़ेगा और सरकारें अपने आपको सर्वशक्तिमान बनाने के लिए नए-नए रास्ते अपनाएंगी। उनकी यह भविष्यवाणी अभी दुनिया के किसी और देश में तो नहीं, लेकिन दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र कहे जाने वाले देश भारत में जरूर हक़ीक़त में तब्दील होती दिख रही है।
इंटरनेशनल पार्लियामेंट्री यूनियन (आईपीयू) एक ऐसी वैश्विक संस्था है जो दुनिया भर के देशों की संसदों के बीच संवाद और समन्वय का एक मंच है। कोरोना महामारी के इस वैश्विक संकटकाल में दुनिया के तमाम छोटे-बडे देशों की संसदीय गतिविधियों का ब्योरा इस संस्था की वेबसाइट पर उपलब्ध है। मगर दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र यानी भारत की संसदीय गतिविधि का कोई ब्योरा वहां नहीं है। जाहिर है कि इस कोरोना काल में भारत की संसद बिल्कुल निष्क्रिय रही है और अभी भी उसके सक्रिय होने के कोई आसार नहीं है।
वैसे तो हमारे देश में पिछले कुछ वर्षों के दौरान ऐसे कई मौके आए हैं जब संसद की सर्वोच्चता या उसकी सार्वभौमिकता की अनदेखी हुई है। लेकिन कोरोना काल में तो उसकी भूमिका को पूरी तरह शून्य ही कर दिया गया है। इस प्रकार भारत दुनिया का एकमात्र ऐसा देश बन गया जहां कोरोना के संकटकाल में व्यवस्था तंत्र की सारी शक्तियां कार्यपालिका यानी सरकार ने अघोषित रूप से अपने हाथों में ले ली।
देश में कोरोना संक्रमण का पहला मामला 30 जनवरी को आया था और 31 जनवरी संसद का बजट सत्र शुरू हुआ था, जिसका समापन निर्धारित समय 3 अप्रैल से पहले 23 मार्च को हो गया था। पूरे सत्र की 23 बैठकों में 109 घंटे और 23 मिनट कामकाज हुआ था, लेकिन इस दौरान दोनों सदनों में कोरोना संकट पर कोई चर्चा नहीं हुई। अलबत्ता समय से पहले सत्र का समापन ज़रूर कोरोना संकट के नाम पर हुआ।
सत्र के दौरान सरकार का ज्यादातर समय अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और उनके परिवार की अगवानी में बीता जो फरवरी के अंतिम सप्ताह में भारत आए थे। उनकी इस यात्रा को भी भारत में कोरोना संक्रमण के मामलों में आई अचानक तेजी की एक बडी वजह माना जा रहा है, क्योंकि उनकी इसी यात्रा के दौरान अहमदाबाद में उनके सम्मान में आयोजित 'नमस्ते ट्रंप’ कार्यक्रम में शामिल होने के लिए 15 हजार से ज्यादा अनिवासी भारतीय भी अमेरिका से भारत आए थे। अमेरिकी राष्ट्रपति की भारत यात्रा और मध्य प्रदेश में सरकार गिराने-बनाने की कवायद के चलते ही सरकार को लॉकडाउन लागू करने में देरी हुई।
इस प्रकार अमेरिकी राष्ट्रपति की यात्रा, मध्य प्रदेश में सत्ता परिवर्तन और संसद सत्र के समापन के बाद सरकार ने कोरोना संकट पर मोर्चा संभाला। पहले एक दिन का देशव्यापी जनता कर्फ्यू और फिर बगैर किसी तैयारी के आनन-फानन में लॉकडाउन लागू कर देश को नौकरशाही और पुलिस के हवाले कर दिया गया। यह सिलसिला अभी भी जारी है।
उम्मीद जताई जा रही थी कि सरकार कोरोना संकट से निबटने के लिए आवश्यक कदम उठाने के बाद संसद का एक विशेष संक्षिप्त सत्र आयोजित करेगी। हालांकि ऐसा करने की कोई संवैधानिक बाध्यता नहीं है, क्योंकि संसद के बजट सत्र का समापन 23 मार्च को ही हुआ था। संवैधानिक प्रावधानों के मुताबिक एक वर्ष में संसद के तीन सत्र होना अनिवार्य है और किन्हीं दो सत्रों के बीच छह महीने से अधिक का अंतराल नहीं होना चाहिए। इसके बावजूद अभूतपूर्व वैश्विक मानवीय आपदा के मद्देनजर और लोकतांत्रिक तकाजे के तहत अपेक्षा की जा रही थी कि सरकार संवैधानिक प्रावधान या तकनीकी पेच का सहारा नहीं लेगी और संसद का विशेष सत्र बुलाएगी। लेकिन इस दिशा में सरकार ने न तो अपनी ओर से कोई दिलचस्पी दिखाई और न ही इस बारे विपक्षी सांसदों की मांग को कोई तवज्जो दी।
कोई कह सकता है कि सोशल या फिजिकल डिस्टेंसिंग बनाए रखने की ज़रूरत की वजह से संसद का कामकाज चल पाना संभव नहीं है। लेकिन यह दलील बेदम है, क्योंकि इसी कोरोना काल में दुनिया के तमाम देशों में सांसदों ने अपने-अपने देश की संसद में अपनी जनता की तकलीफों को उठाया है और उठा रहे हैं। उन्होंने अपनी सरकारों से कामकाज का हिसाब लिया है और ले रहे हैं। इतना जरूर है कि लॉकडाउन प्रोटोकॉल और फिजीकल डिस्टेंसिंग की अनिवार्यता का ध्यान रखते हुए तमाम देशों में सांसदों की सीमित मौजूदगी वाले संक्षिप्त सत्रों का या वीडियो कांफ्रेंसिंग वाली तकनीक का सहारा लेकर 'वर्चुअल पार्लियामेंट्री सेशन’ का आयोजन किया गया है। कई देशों ने संसद सत्र में सदस्यों की संख्या को सीमित रखा है, तो कुछ देशों में सिर्फ संसदीय समिति की बैठकें ही हो रही हैं।
लेकिन इस सबके विपरीत दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र भारत में सरकार की जवाबदेही को तय करने वाली संसद अभी तक निष्क्रिय बनी हुई है। संसद अपनी सक्रिय भूमिका निभाए, इसमें सरकार की दिलचस्पी तो नहीं ही है, संसद के दोनों सदनों के मुखिया यानी लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति भी सप्रयास संसदीय गतिविधियों को ठप रखे हुए हैं। यही वजह है कि विभिन्न मंत्रालयों से संबंधित संसदीय समितियों की बैठकें भी नहीं हो पा रही हैं। जबकि इन समितियों में सीमित संख्या में ही सदस्य होते हैं।
संसद के प्रति सरकार यानी प्रधानमंत्री की उदासीनता को देखते हुए सत्तारूढ दल के सांसदों ने भी अपनी अध्यक्षता वाली संसदीय समितियों की बैठक आयोजित करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। गौरतलब है कि हमारे यहां विभिन्न मंत्रालयों से संबंधित 24 स्थायी संसदीय समितियां हैं, जिनमें से इस समय 20 समितियों के अध्यक्ष सत्तारूढ़ दल के सांसद हैं। जिन विपक्षी सांसदों ने अपनी अध्यक्षता वाली समितियों की बैठक वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए बुलाने की पहल की, उन्हें राज्यसभा और लोकसभा सचिवालय ने रोक दिया।
राज्यसभा में कांग्रेस के उप नेता आनंद शर्मा गृह मंत्रालय सें संबंधित मामलों की संसदीय समिति के अध्यक्ष हैं। पिछले दिनों वे चाहते थे कि समिति की बैठक वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए हो, पर राज्यसभा सचिवालय ने इसके लिए मना कर दिया है। इसी तरह सूचना प्रौद्योगिकी संबंधी संसदीय समिति के अध्यक्ष शशि थरुर ने भी अपनी समिति की बैठक वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए कराने की अनुमति मांगी थी, जो लोकसभा सचिवालय से नहीं मिली। दोनों सदनों के सचिवालयों की ओर से दलील दी गई कि संसदीय समिति की बैठकें गोपनीय होती हैं, लिहाजा वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए बैठक करना नियमों के विरुद्ध है।
सवाल उठता है कि जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश भर के मुख्यमंत्रियों के साथ वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए बैठकें की हैं। प्रधानमंत्री मोदी की पहल पर ही दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क) के सदस्य देशों के प्रमुखों की वर्चुअल मीटिंग हो चुकी है। सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए मामलों की सुनवाई कर रहे हैं। देश के कैबिनेट सचिव अक्सर राज्यों के मुख्य सचिवों के साथ वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए मीटिंग करते ही हैं। तो फिर संसदीय समिति की बैठक वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिये क्यों नहीं हो सकती? एक तरफ़ सरकार एप बनाकर देश के हर नागरिक को उसे डाउनलोड करने के लिए बाध्य कर रही है, ताकि तकनीक के जरिए कोविड-19 से लड़ा जा सके और दूसरी ओर संसद में तकनीक का इस्तेमाल कर समितियों की बैठक करने से मना किया जा रहा है। यह स्थिति तब है जब प्रधानमंत्री जीवन के हर क्षेत्र में तकनीक के अधिक से अधिक इस्तेमाल का आग्रह करते हैं।
कुल मिलाकर पिछले दो महीने से देश में जो कुछ हो रहा है, उसका फ़ैसला सिर्फ़ और सिर्फ़ सरकार और नौकरशाह कर रहे हैं। इतनी बडी वैश्विक मानवीय त्रासदी के दौरान देश की सर्वोच्च नीति निर्धारक संस्था और सबसे बडे राजनीतिक मंच यानी संसद को भूमिकाविहीन बना दिए जाने का अभूतपूर्व कारनामा सिर्फ भारत में हो रहा है। संसद और विधान मंडलों के निर्वाचित सदस्यों की भी कोई भूमिका है। जबकि देश की बहुत बडी आबादी सरकारी कुप्रबंधन की जबरदस्त मार झेल रही है। सरकार को जो उचित और राजनीतिक रूप से फायदेमंद लग रहा है, वही हो पा रहा है। नौकरशाही निरंकुश बनकर काम कर रही है। मीडिया पूरी तरह सरकार के प्रचारक की भूमिका निभा रहा है। ऐसे में जो कोई भी अव्यवस्था, संवेदनहीनता, अमानवीयता से त्रस्त लोगों आवाज उठाने की कोशिश कर रहा है, उसे यह नसीहत देकर चुप कराने की कोशिश की जा रही है कि इस मुद्दे पर राजनीति नहीं की जानी चाहिए।
नेहरू युग के प्रखर संसदविद और समाजवादी विचारक राममनोहर लोहिया अक्सर कहा कहा करते थे कि जब सड़क सूनी हो जाए तो संसद ऊसर और सरकार निरंकुश हो जाती है। आज कमोबेश यही हालत हो गई। भारी बहुमत वाली सरकार तो कई बार संसद को ठेंगे पर रखकर ऐसे मनमाने फैसले करने लगती है, जो कुछ ही समय बाद देश के लिए घातक साबित होते हैं। मसलन, पिछले दिनों एक-एक करके छह राज्य सरकारों ने अपने यहां श्रम कानूनों को तीन साल के लिए स्थगित करने का आनन-फानन में ऐलान कर दिया। ऐसा सिर्फ़ भाजपा शासित राज्यों ने ही नहीं बल्कि कांग्रेस शासित ने भी किया। जबकि यह फ़ैसला राज्य सरकारें नहीं कर सकतीं, क्योंकि यह विषय संविधान की समवर्ती सूची में है, लिहाजा श्रम कानूनों के मामले में ऐसा कोई फैसला संसद की मंजूरी के बगैर हो ही नहीं सकता। संविधान ने संसद के बनाए कानूनों को स्थगित करने या उनमें संशोधन करने का अधिकार संविधान ने राज्यों को नहीं दिया है, लेकिन कोरोना संकट की आड़ में राज्य बेधड़क अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर चले गए।
कोरोना संकट की चुनौतियों का सामना करने और ढहती अर्थव्यवस्था को थामने के लिए घोषित किए गए 20 लाख करोड़ रुपये के पैकेज और नए आर्थिक सुधार लागू करने के मामले में भी ऐसा ही हुआ। दोनों मामलों में प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री ने ऐलान तो कर दिया, लेकिन संसद की मंजूरी लेना जरूरी नहीं समझा। अमेरिका, ब्रिटेन आदि कई देशों में भी राहत पैकेज घोषित किए गए हैं, लेकिन ऐसा करने के पहले वहां की सरकारों ने विपक्षी दलों से सुझाव मांगे और पैकेज को संसद से मंजूरी की मुहर लगवाने के बाद घोषित किया। लेकिन भारत में ऐसा कुछ नहीं हुआ। जबकि हमारा संविधान साफ़ कहता है कि सरकार संसद की मंजूरी के बगैर सरकारी खजाने का एक पैसा भी खर्च नहीं कर सकती। बजट और वित्त विधेयक के पारित होने से सरकार को यही मंज़ूरी मिलती है। इसलिए अभी कोई नहीं जानता, यहां तक कि शायद कैबिनेट भी नहीं कि 20 लाख करोड रुपए के पैकेज में से जो 2 लाख करोड रुपए वास्तविक राहत के रूप में तात्कालिक तौर खर्च हुए हैं, वे 23 मार्च को पारित हुए मौजूदा बजटीय प्रावधानों के अतिरिक्त हैं अथवा उसके लिए अन्य मदों के खर्च में कटौती की गई है।
किसी भी लोकतंत्र में संसद और विधानसभाएं जनता के सुख-दुख का आईना होती हैं। लेकिन कोरोना काल में इस आईने पर पर्दा डला हुआ है। लॉकडाउन लागू होने के बाद देश भर की सड़कों पर बिखरे तरह-तरह के हजारों दर्दनाक दृश्यों, घरों में कैद गरीब लोगों की दुश्वारियों और करोड़ों किसानों की तकलीफ़ों को सुनने के लिए भी देश की सबसे बडी पंचायत नहीं बैठी। जनता के चुने हुए नुमाइंदों को मौका ही नहीं मिल रहा है कि वे अपने-अपने इलाके की जमीनी हकीकत और लोगों की तकलीफों से प्रधानमंत्री और उनकी सरकार को अवगत करा सके या उनसे जवाब तलब कर सके।
कुल मिलाकर कोरोना काल में संसद भूमिका को पूरी तरह शून्य कर दिया गया है। सुप्रीम कोर्ट अलग कह चुका है कि वह इस समय सरकार के कामकाज में कोई दखल देना उचित नहीं समझता। इस प्रकार भारत दुनिया का एकमात्र ऐसा देश बन गया जहां कोरोना के संकटकाल में व्यवस्था तंत्र की सारी शक्तियां कार्यपालिका यानी सरकार ने अघोषित रूप से अपने हाथों में ले ली।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)