कोल उद्योग के निजीकरण का अर्थ
आदिवासी जनता सदियों से इस बात को जानती थीं कि जमीन के अंदर कोयले, लोहे आदि का अक्षय भंडार है. लेकिन वे यह नहीं सोच पाती थी कि धरती की छाती रौंद कर उन्हें निकाला जाये और महज मुनाफे के लिए उसे बेचा जाये.
लेकिन प्रभु सत्ता इस बात को जानती है. कुछ अपवादों को छोड़ कर आज के तमाम राजनीतिक दल के विकास का माॅडल निजीकरण और निजी बहुदेशीय कंपनियों के पूंजीनिवेश पर ही आधारित होता है, चाहे वह झामुमो हो या भाजपा या कांग्रेस.
झामुमो नेता और मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने कोल उद्योग के निजीकरण का विरोध तो किया था, लेकिन आखिरकार उन्होंने भी कोल खदानों की नीलामी के केंद्र सरकार के प्रस्ताव का समर्थन कर कोल उद्योग के निजी करण का रास्ता प्रशस्त कर दिया है.
संभावना है कि जल्द ही कोल खदानों की नीलामी की प्रक्रिया शुरु होगी.
वैसे, श्रमिक संगठनों ने कोल क्षेत्र के निजीकरण का विरोध कर जुलाई माह के प्रथम सप्ताह में तीन दिवसीय हड़ताल का फैसला लिया है. आज संभवतः कोल क्षेत्र में स्ट्राईक का नोटिश दे दिया जायेगा.
नीलामी को आसान करने के लिए सरकार ने कई तरह के नीतिगत फैसले लिये है.
मसलन,
अब कोई भी कंपनी कोल खदानों को लीज पर ले सकती है. पहले सिर्फ उन्हीें कंपनियों को कोल खदान दिया जाता था जो अपने कारखानों में उत्पादित कोल का इस्तेमाल करते थे. स्टील कारखानों, पावर प्लांट कारखानों आदि को ही कोल खदानों के पट्टे दिये जाते थे.
इसके पीछे की भावना यह थी कि कोयला उर्जा का एक बहुमूल्य स्रोत है. इसके अलावा कोल भंडार भी समाप्त हो जायेंगे. इसलिए उनका इस्तेमाल मितव्यतिता से हो. लेकिन अब कोई भी कंपनी कोल खदान लीज पर लेकर उत्खनन कार्य कर सकती है और उस कोयले को बेच सकती है.
एक नया प्रावधान यह भी किया गया है कि अब अब कोई बड़ी कंपनी कोल खदान नीलामी में प्राप्त करने के बाद उसे सबलीज भी कर सकती है.
कुल मिला कर कोल खदानों में उत्खनन के नाम पर लूट खसोट का एक नया दौर शुरु होने वाला है. चूंकि तमाम नये खदान वन क्षेत्र में ही पड़ते हैं, जाहिर है वनों का विनाश होगा.
सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियां भी उत्खनन तो करती थी, लेकिन उन पर दबाव रहता था कि वे पर्यावरण का भी भरसक ख्याल रखें. लेकिन शुद्ध मुनाफे के लिए काम करने वाली निजी कंपनियां पर्यावरण का कितना ख्याल रखेंगी, यह कहना मुश्किल है.
स्थानीय जनता को क्या मिलेगा?
राज्य सरकारों को नीलामी से प्राप्त राशि का एक हिस्सा प्राप्त होगा. जो कोयला निकलेगा, उसकी रायल्टी का एक हिस्सा मिलेगा, जो उन्हें अब भी मिलता है. यदि एक विशाल राशि बकाया है सार्वजनिक कंपनियों के पास तो इसके लिए जिम्मेदार केंद्र सरकार ही है.
लेकिन जनता को क्या मिलेगा? उन्हें अपनी ही जमीन और खनिज संपदा के क्षेत्र में मजूरी करने का अवसर मिलेगा. भूमि अधिग्रहण करने वाली निजी कंपनियां मुआवजा तो शायद दे, लेकिन नौकरी देने के लिए कभी तैयार नहीं होंगी.
जहां नये खदान खुलेंगे, वहां छोटे छोटे कस्बे बनेंगे, बाजार बनेगा, आस पास प्रदूषण बढ़ेगा, भारी-भारी वाहनों के आवागमन से पूरा वातावरण धूल धूसित होगा.
हो सकता है, स्थानीय जनता भी थोड़ा बहुत नगदी कमाई कर सकें, लेकिन उनका जीवन नारकीय बनने जा रहा है.