कबीर

एक निरंजन अलह मेरा,बिंदु तुरक दुहूँ नहीं मेरा ॥
राखूं ब्रत न महरम जांनां,तिसहीं सुमरुं जो रहे निदानां
पूजा करूँ न महरम जांनां,एक निराकार हरदै नमसकारूं ॥
नौं हज जाऊं न तीरथ पूजा,एक पिछांग्या तो का दूजा
कहे कबीर भरम सब भागा,एक निरंजन सूँ मन लागा ॥



मेरा अल्लाह निरंजन ( निर्गुण) है ।हिंदु मुसलमान दोनों उसके पास नहीं पहुँच सके हैं ।मैं न तो व्रत रखता हूँ,न रमजान( रोज़ा) ।उसका ही स्मरण करता हूँ,जो अंत तक रहता है। पूजा नहीं करता,नमाज़ नहीं पढ़ता ।निराकार ब्रह्म को ह्रिदय में नमस्कार करता हूँ । हज नहीं जाता । तीर्थ,पूजा नहीं करता ।एक को पहचान लिया है तो दूसरे की क्या जरूरत है !