दरअसल, हमारी विदेश नीति के भी मूल में है सांप्रदायिकता

हम विश्व को एक कुटुंब मानते हैं. लेकिन इससे बड़ी बिडंबना क्या होगी कि किसी भी पड़ोसी मुल्क से हमारे रिश्ते सहज नहीं. पाकिस्तान हमारा चिर शत्रु है. नेपाल हिंदूबहुल देश होते हुए भी हमसे विवादों में उलझा हुआ है. चीन से हमारी सीमाएं हजारों किलो मीटर लंबे क्षेत्र में फैली हैं और कम से कम 14 स्थानों पर हमारा उनसे सीमा विवाद है. बांगलादेश को एक स्वतंत्र मुल्क बनाने में हमारी महत्वपूर्ण भूमिका रही है, लेकिन बांग्लादेश में जन भावनाएं हमारे खिलाफ है. श्रीलंका तो हमसे खार खाता ही है. म्यामार, मलेशिया, किससे हमारे रिश्ते सौहार्दपूर्ण रह गये हैं?



इसके तह में जाईये तो एक बात जो स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है कि हमारी विदेश नीति भी सांप्रदायिक भावनाओं से परिचालित होती है. पिछले कुछ वर्षों से केंद्र की सत्ता पर काबिज भाजपा को पाकिस्तान अपना सबसे बड़ा शत्रु नजर आता है. क्योंकि उससे शत्रुता कर उसे राजनीतिक फायदा होता है. पाकिस्तान विरोध के नाम पर देश के मुसलमानों के खिलाफ हिंदुओं को गोलबंद करने में मदद मिलती है. नफरत का आलम यह कि अपने राजनीतिक शत्रुओं को वे पाकिस्तान जाने की सलाह देते रहते हैं.


जबकि चीन अपने रवैये से भारत का ज्यादा नुकसान करता रहा है. एक तो लंबी सीमा रेखा पर विभिन्न स्थानों अतिक्रमण कर हम पर दबाव बनाये रखता है, दूसरा हमारी अर्थ व्यवस्था को भी लगातार खोखला कर रहा है. वह हमसे कच्चा माल खरीदता है और उपभोक्ता माल हमें बेचता है. अब तो यह कहा जाने लगा है कि उपभोक्ता सामानों का हमारे देश में 80 फीसदी बाजार चीन के कब्जे में है.


सीमा विवाद की शुरुआत करें तो तिब्बत भारत और चीन के बीच एक बफर स्टेट था. चीन ने उसे हड़प लिया. नेहरु के जमाने में लद्दाख के बड़े भू भाग पर उसने कब्जा कर लिया. अरुणाचल प्रदेश पर वह अपना दावा ठोंकता रहता है. लेकिन आपने कभी किसी भाजपा नेता को अपने विरोधियों से यह कहते सुना है कि वह चीन चला जाये?


इसी सांप्रदायिक नजरिये की वजह से भारत की दोस्ती उन मुल्कों से ज्यादा है जो मुसलमानों के खिलाफ हैं. जैसे अमेरिका या फिर इजराईल. और इन दोनों से दोस्ती का खामियाजा भारत को इस रूप में चुकाना पड़ता है कि उनके दोस्त या दुश्मन भारत के भी दोस्त या दुश्मन बन जाते हैं. मसलन ईरान से भारत का वैमनष्य सिर्फ इसलिए है, क्योंकि अमेरिका की ईरान से दुश्मनी है.


क्या इसी सांप्रदायिक नजरिये की वजह से हम चीन के प्रति लापरवाह नहीं रहे हैं?


हम गुट निरपेक्ष नीति को कब का त्याग कर चुके हैं. वैसे में अमेरिका के साथ दोस्ती का दम भरते हुए हम जो उसके सबसे बड़े शत्रु चीन के साथ दोस्ती करने का दिखावा करते हैं, यह नाटक नही तो क्या है? प्रधानमंत्री बनने के बाद सर्वाधिक चीन की यात्रा करने वाले मोदी चीन को कितना साध पाये? चीनी राष्ट्रपति के साथ झूला झूलते मोदी क्या यह सोच पाये थे कि चीन के भीतर क्या पक रहा है?


विनोद कुमार