अधिनायकवादी और आक्रमणकारी ‘माओत्से’ की अंतिम पराजय ‘लाओत्से’ के हाथों ही होगी।


17वीं-18वीं सदी में जापान में झेन बुद्धमार्गियों में एक प्रसिद्ध भिक्षु हुए हाकुइन इकाकु। हाकुइन चित्रकारी भी करते थे। संलग्न पेंटिंग उन्हीं की बनाई कही जाती है।


इस पेंटिंग में जो तीन संत दिखाई दे रहे हैं वे हैं- शाक्यमुनि गौतम बुद्ध, लाओत्से और कन्फ्यूशियस। इस पेंटिंग का नाम है- ‘द वेनिगर टेस्टर्स’। इसके पीछे की एक कहानी है।


वेनिगर यानी सिरका एक पात्र में रखा है। सबसे पहले कन्फ्यूशियस उसमें अपनी अंगुली डुबोते हैं और कहते हैं कि इसका स्वाद खट्टा है। उनके कहने का निहितार्थ होता है कि जीवन दूषित या अप्रिय है। लोगों का नैतिक पतन हो चुका है। उन्हें सुधारने के लिए नियमों की जरूरत है।


इसके बाद शाक्यमुनि बुद्ध इसमें अपनी अंगुली डुबोते हैं और कहते हैं कि इसका स्वाद कड़वा है। इसका निहितार्थ है कि जीवन दुःख और पीड़ा से भरा है। इसका कारण मनुष्य की कभी न संतुष्ट हो सकने वाली अंतहीन इच्छाएँ हैं।


इसके बाद लाओत्से इस सिरके को चखते हुए इसका स्वाद मीठा बताते हैं। उनका निहितार्थ है कि जीवन अपनी सहज और प्राकृतिक अवस्था में परिपूर्ण है और सुखद है।


पेंटिंग का एक विश्लेषण इस रूप में किया जाता है इन तीनों संतों का उपदेश अपने मूल में एक ही है, क्योंकि ये तीनों संत इस सिरका-घट के पास एक साथ आत्मीयता से खड़े हैं।


यह पेंटिंग चीन, जापान और भारत को एक ही आध्यात्मिक सूत्र में जोड़नेवाला अद्भुत प्रतीक है। लेकिन आज यह आध्यात्मिक एकता साम्राज्यवादी राजनीतिक सत्ता-तंत्र की महत्वाकांक्षाओं की भेंट चढ़ गया लगता है।


कालांतर में चीनी समाज ने लाओत्से के महान ‘ताओ ते चिंग’ (सद्गुण संपन्न जीवन के नियम) की जगह माओत्से के हिंसावादी राजनीतिक संघर्ष को वरीयता दे दी। उसने कन्फ्यूशियस के नैतिक नियमानुशासन की जगह तेंग श्याओ पिंग के राक्षसी भोगवाद और अधिनायकवाद को चुन लिया।


इधर भारतीय समाज भी औपनिषदिक ऋषियों, बुद्धों, संतों, सूफियों और फकीरों के वास्तविक धर्मानुशासन को समझने और आत्मसात करने की दिशा में नहीं बढ़ सका। मजहबी मूढ़ताओं और हिंसक और भ्रष्ट राजनीतिक टकरावों ने इसे नैतिक और आध्यात्मिक स्तर पर लगभग खोखला कर दिया।


आज यदि भारत पर आक्रमण हुआ है या होता है, तो सैन्य प्रतिकार के जरिए अपनी रक्षा करना उसका कर्तव्य है। लेकिन भारत को अपने में यह सामर्थ्य भी पैदा करना चाहिए कि वह दूरगामी सांस्कृतिक और आध्यात्मिक स्तर पर चीनी समाज को संबोधित कर सके।


माओत्से की असली हार लाओत्से के हाथों ही होगी। संघर्ष केवल हथियारों से नहीं, विचारों से भी होता है। विचारों की जीत दूरगामी होती है। भारत को अपने आप में वह शक्ति पैदा करनी पड़ेगी। बल्कि वह शक्ति उसके भीतर पड़ी है, लेकिन उसे उसके कुंभकर्णी निंद्रा से जगाना होगा।


अपने महान ग्रंथ ‘ताओ ते चिंग’ में लाओत्से ने कहा था—


“हथियार कितना भी चमकदार दिखता हो,
वह अशुभ का ही प्रतीक है।
सभी जीवों के लिए एक घृणित वस्तु है हथियार।
जो ताओ के आधार पर जीते हैं,
वे हथियारों से कोई वास्ता नहीं रखते।”


एक अन्य स्थान पर लाओत्से कहते हैं—


“सच्चा सेनानायक कहता है:
मैं कभी पहले आक्रमण नहीं करूंगा।
मैं प्रतिरक्षा के लिए तत्पर रहना पसंद करूंगा,
लेकिन एक कदम भी आगे नहीं बढूंगा।
बढ़ गया, तो भी अपने पैर वापस खींच लूंगा।"


संत लाओत्से आगे कहते हैं—


"युद्ध से बढ़कर कोई आपदा नहीं।
युद्ध से मानवता लुट जाती है।
आक्रमणकारी का डटकर मुकाबला करते हुए
वही जीतेगा जिसके भीतर मनुष्यता होगी।”


भारत की अपराजेय शक्ति भारत का धर्मविचार है। ‘धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे’ की भाँति उसे यह युद्ध सजग रूप से दोनों ही मोर्चों पर लड़ना होगा।


चीन के अधिनायकवादी राजनीतिक नेतृत्व की वास्तविक पराजय चीनी समाज, चीनी जनता के हाथों ही होनी है। उस दिन वहाँ ‘माओत्से’ को हटाकर ‘लाओत्से’ की पुनर्प्रतिष्ठापना होगी।


~अव्यक्त, 17 जून, 2020 🙏