अभी मौक़ा भी है और दस्तूर भी !


भारत-चीन सीमा विवाद पर 


अभी राहुल गांधी ने भारत-चीन सीमा की हकीकत को लेकर जो तल्ख़ बयान दिया है उसमें बहुत हद तक सच्चाई तो है, लेकिन वे यह बताना भूल गए कि सीमा विवाद को इस हकीकत तक पहुंचाने में खुद उनकी कांग्रेस का कितना योगदान रहा है। इस मसले में कांग्रेस का इतिहास निराशाजनक रहा है। 1962 के जंग में भारत से बहुत कुछ छिन गया था। सत्तर के दशक में चीन ने अपनी भारत-नीति में बदलाव किया और दिखाया कि बिना युद्ध के भी वह हमारे देश की जमीन हड़प सकता है। वह जब चाहे आराम से वास्तविक नियंत्रण रेखा को धत्ता बताकर भारत की सीमा में दस-बीस किलोमीटर भीतर घुस आता है। भारत के विरोध के बाद वार्ता होती है और वह दो-चार किमी पीछे हट जाता है।1962 के बाद 'ज्यादा घुसो और थोड़ा लौटो' की रणनीति से चीन हमारे कितने बड़े भूभाग पर कब्ज़ा कर चुका है, इसका खुलासा होना अभी बाकी है। इंदिरा जी की आक्रामकता को अपवाद मानें तो चीन के संदर्भ में कांग्रेस की नीतियां कुछ वामपंथ के दबाव और कुछ अपनी कमज़ोर रक्षा तैयारियों की वज़ह से हमेशा भीरू और संदिग्ध ही रही।


मोदी सरकार में चीन के संदर्भ में आत्मविश्वास दिख रहा है। यह आत्मविश्वास शायद देश को कई मोर्चों पर मिली कूटनीतिक सफलता और बेहतर सैन्य तैयारियों की देन है। लेकिन यह आत्मविश्वास कितना वास्तविक है और कितना मीडिया-निर्मित, यह देखना अभी बाकी है। इस सरकार के कार्यकाल में अभी तो चीन की घुसपैठ में वृद्धि भी दिख रहा है और विस्तार भी। हमारी सेना को सिक्किम, उत्तराखंड, लद्दाख और अरुणाचल प्रदेश में एक साथ कई मोर्चे संभालने पड़ रहे हैं। इन प्रदेशों से लगी सीमाओं पर चीन की घुसपैठ कितनी भीतर तक हुई है, यह किसी को पता नहीं। सवाल उठने लाज़िमी हैं। देश को मुद्दे से भटकाने के लिए इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के एक बड़े वर्ग द्वारा दोनों देशों के बीच युद्ध का माहौल बनाया जा रहा है। यह मूर्खतापूर्ण है। युद्ध समस्या का समाधान नहीं, अपने आप में एक समस्या है। परमाणु हथियारों के इस दौर में युद्ध लड़े तो जा सकते हैं,जीते नहीं जा सकते। युद्ध के बाद भी दोनों पक्षों को अंततः वार्ता के टेबुल पर ही आना होता है।


सच यह है कि आज़ादी के बाद भारत और चीन के बीच सीमाओं के निर्धारण का काम कभी हुआ ही नहीं। सीमा की सारी व्यवस्थाएं कामचलाऊ और परंपराओं पर आधारित है। ऐसा नहीं है कि सीमाओं के निर्धारण की कोशिशें नहीं हुईं, लेकिन चीन की दबंगई की वज़ह से ऐसी तमाम कोशिशें नाकाम होती रही हैं। सीमाओं की अस्पष्टता की हालत में भारत के तमाम क्षेत्रों पर अस्पष्ट दस्तावेजों और ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर चीन ही आजतक दावे करता रहा है। भारत की भूमिका रक्षात्मक ही रही है। भारत चाहता तो ऐतिहासिक और सांस्कृतिक साक्ष्यों के आधार पर चीन के कुछ भूभागों पर अपना दावा ठोक कर उसपर दबाव बना सकता था। कैलाश मानसरोवर ऐसा ही एक क्षेत्र है। यह पूरा क्षेत्र हज़ारों वर्षों से भारतीय संस्कृति का केंद्र और हिन्दुओं के देवता भगवान शिव का आवास रहा है। धार्मिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक आधार पर चीन का यहां कोई दावा नहीं बनता था। वैसे तो प्राचीन काल से समूचा तिब्बत ही चीन के बजाय भारतीय धर्म, संस्कृति और परंपराओं के ज्यादा निकट रहा है। अपनी भीरुता के कारण हमने तिब्बत पर दलाई लामा की निर्वासित सरकार की जगह चीन की प्रभुता स्वीकार कर ऐतिहासिक भूल की थी।


जो हो चुका उसे लौटाना तो अब शायद संभव नहीं होगा, लेकिन भारत और चीन के बीच सीमा निर्धारण के लिए वार्ताओं के दौर चलाने का अभी सही समय है। सीमा पर तमाम हलचलों के बावजूद मोदी सरकार के चीन से रिश्ते बहुत तल्ख़ नहीं हैं। मोदी और जिनपिंग के बीच व्यक्तिगत संपर्क और संवाद भी किसी न किसी रूप में बना हुआ है। अभी की स्थितियां भी अलग हैं। आज का भारत 1962 का भारत नहीं है। वैश्विक कूटनीति में वह चीन से बहुत आगे है। उसकी सामरिक तैयारियां चीन के समकक्ष नहीं तो उससे बहुत पीछे भी नहीं है। चीन के व्यापार का एक बड़ा हिस्सा भारत के बाजार पर निर्भर है जिसे वह किसी भी हालत में खोना नहीं चाहेगा। उससे भी बड़ी बात यह है कि अब दुनिया की परिस्थितियां भी बदल चुकी है। कोरोना के वैश्विक प्रसार के लिए चीन कठघरे में खड़ा है। हांगकांग तथा ताइवान की लोकतांत्रिक इच्छाओं के दमन और साउथ चाइना सी में आक्रामक विस्तार के कारण चीन हर तरफ से घिरा हुआ है। अमेरिका और कई यूरोपीय देश चीन के साथ अपने व्यापारिक संबंधों पर पुनर्विचार कर रहे है। अभी के हालात में भारत को खोने का जोखिम चीन नहीं उठा सकता।


विश्व की ताज़ा परिस्थितियों ने एक अवसर ज़रूर दिया है हमें अपनी कुछ भूलों को सुधारने का। दोनों देशों के बीच सीमा निर्धारण और समझौते की प्रक्रिया जटिल ज़रूर है, लेकिन इसके सिवा कोई रास्ता नहीं। चीन की आक्रामक सीमा-नीति को देखते हुए सीमाओं के निर्धारण में पुख्ता दस्तावेजों, ऐतिहासिक साक्ष्यों, बहुत आत्मविश्वास और थोड़ी आक्रामकता के साथ उतरने की ज़रूरत है। यह अभी नहीं हुआ तो शाय



ध्रुव गुप्त 
सेवानिवृत आई  पी एस अधिकारी