मार्क्स_एक_इंसान


#मार्क्स_एक_इंसान


दुनिया को जीवन और भौतिक जगत की सत्यता समझाने वाले मार्क्स अपनी पत्नी जेनी की मौत पर इतना विव्हल हुये थे कि जब जेनी को दफनाया गया तो वे उसकी कब्र में कूद गए थे ।
● शानदार क्रांतिकारी कार्ल मार्क्स जितने बड़े दार्शनिक थे उतने ही बड़े प्रेमी भी थे । जीवनसाथी के रूप में जेनी उनका पहला और आख़िरी प्यार थीं ।
● यह कोई संयोग नहीं है कि इतिहास (जाहिर है मानव इतिहास की बात हो रही है) में जितने भी क्रांतिकारी व्यक्तित्व हुये हैं, जितने भी प्यारे इंसान हुये हैं, उन सब में एक बात कॉमन है । वे सभी प्रेम करने वाले थे, प्यार में डूबे । इन्सानियत से इश्क़ करने वाला ही सच्चा इश्क़ कर सकता है : इसे उलट कर भी पढ़ा जा सकता है ।
● इसी तरह यह भी संयोग नहीं है कि जितने भी तानाशाह, अमानवीय, हिंसक, क्रूर और बर्बर बुरबक हुये हैं वे सभी - बिना किसी अपवाद के - प्रेम और उसे करने की क्षमता से वंचित अर्धविकसित मनुष्य होकर रह गए हैं ।
● जेनी से प्यार करते हुये मार्क्स ने ढेर सारी प्रेम कविताएं लिखी हैं । इतने डूब कर भीगे प्रेम खत लिखे हैं कि पढ़कर जेनी के प्रति लाड उमड़ता है । मन करता है कि दोनों को बुलाएं और कुछ दिन के लिए लाइब्रेरी से उठाकर पचमढ़ी या अमरकंटक की वादियों में छोड़ दें :, अपने खर्चे पर, क्योंकि मार्क्स की जेब में तो इतने भी पैसे नहीं होंगे । अपनी सुख सुविधाएं छोड़कर मार्क्स को चुनने वाली प्रशा सरकार के मंत्री की बेटी जेनी को कोई भौतिक सुख तो वे दे नही पाये थे । सिवाय यह कहने के कि : ‘प्यार जेनी है, प्यार का नाम जेनी है।’
● मार्क्स ने दो साल में जेनी के लिये कविताओं के तीन खंड लिखे जिनमें एक का शीर्षक था - ‘प्यार की किताब’ एक थी ‘गीतों की किताब’ ।
★★ पढ़िये जेनी के नाम लिखी मार्क्स की एक कविता;


जेनी ! 
दिक करने को तुम पूछ सकती हो
संबोधित करता हूँ गीत क्यों जेनी को
जबकि तुम्हारी ही ख़ातिर होती मेरी धड़कन तेज़
जबकि कलपते हैं बस तुम्हारे लिए मेरे गीत
जबकि तुम, बस तुम्हीं, उन्हें उड़ान दे पाती हो
जबकि हर अक्षर से फूटता हो तुम्हारा नाम
जबकि स्वर-स्वर को देती हो माधुर्य तुम्हीं
जबकि साँस-साँस निछावर हो अपनी देवी पर !
इसलिए कि अद्‌भुत मिठास से पगा है यह प्यारा नाम
और कहती है कितना-कुछ मुझसे उसकी लयकारियाँ
इतनी परिपूर्ण, इतनी सुरीली उसकी ध्वनियाँ
ठीक वैसे, जैसे कहीं दूर, आत्माओं की गूँजती स्वर-वलियाँ
मानो कोई विस्मयजनक अलौकिक सत्तानुभूति
मानो राग कोई स्वर्ण-तारों के सितार पर !


(रचनाकाल : 1836 ; सोमदत्त द्वारा अनूदित)


Badal Saroj