नसीरुद्दीन शाह ने क्या दिल से श्रद्धांजलि दिया है इरफान को, एक अभिनेता दूसरे अभिनेता को कुछ इस प्रकार याद करे, उसकी मेहनत, तकनीक और प्रतिभा की व्याख्या करे, ऐसा बहुत कम ही हुआ है।
इरफ़ान = अक्ल, इल्म और शुक्रगुज़ारी
“ओह, वह चला गया? अलविदा कहे बिना, वह ऐसा कैसे कर सकता था? उसने इंतजार किया होगा ” वेटिंग फॉर गोडॉट (नाटक)
इरफान जिस सादगी और गौरव के साथ जीया उसी के साथ चला भी गया।
एक दिन घर लौटने पर मैंने देखा कि रत्ना अपने ड्राइंग रूम में एक बेहद मामूली से दिखने वाले पर अत्यंत सौम्य व्यक्ति के साथ बैठी थी और दोनों किसी टीवी शो के लिए रिहर्सल कर रहे थे। यह उससे भी बहुत पहले की बात है, जब अभी विशाल भारद्वाज के दिमाग में “मकबूल” बनाने का ख्याल तक न आया था,
उस व्यक्ति का अभिनय मैंने पहले कभी नहीं देखा था। मेरा शायद उसकी ओर खास ध्यान जाता भी नहीं पर उसकी आँखों ने न सही पर खड़े होकर अभिवादन करते समय मुझसे वह जिस शांत आश्वस्त भाव के साथ मिला तो मैंने उसे ध्यान से देखा और वह पल मेरी स्मृति से चिपक गया – हल्का-फुल्का सम्मान भाव, कोई चाटुकारिता नहीं, कोमल सी दृढ़ता के साथ उसका मुझसे हाथ मिलाना – उसके व्यक्तित्व में एक अडिग आत्मविश्वास और दूसरों में रुचि का भाव साफ़ परिलक्षित हो रहा था। उस क्षण के बाद मैंने इरफ़ान को हमेशा उसकी इन्हीं खूबियों के साथ परिभाषित किया है।
यह उससे भी बहुत पहले की बात है जब अपने तीखे अंदाज, विचारशील और गहरे से महसूस किए जाने वाले अभिनय से इरफ़ान को पूरे देश की चेतना और दुनिया भर के बड़े परदे पर एक चौंकाने वाले संवेदनशील कलाकार के रूप में छा जाना था।
शुरुआती दौर में इरफ़ान ने टीवी के कुछ भूले-बिसरे सीरियलों में काम किया। कुछ फिल्मों में छोटे-मोटे रोल भी मिले। पर यह उसका मुकाम नहीं था। मेरा यकीन है कि इरफ़ान ने उस दौर को अपना हुनर निखारने के प्रशिक्षण के तौर पर इस्तेमाल किया, जिसके बूते आने वाले सालों में उसे हम सब को चौंकाना था। लगता है जैसे प्रकृति उसकी संभावनाओं को पहचान रही थी और इरफ़ान को खुद से न्याय करने के लिए तैयार कर रही थी। पर कुदरत भी अजीब मज़ाक करती है। कई बार वह आपको अपना पाँव दराती की धार पर रखने को मजबूर कर देती है फिर उसी का मुठ आपकी खोपड़ी पर बजा देती है।
“हासिल” फिल्म से पहले शायद ही किसी का ध्यान उसकी तरफ गया हो। अब तक उसके काम को आँका नहीं गया था। मगर उसने अपने अभिमान को घायल नहीं होने दिया और चट्टान के से संकल्प के साथ, इस सफर में जो कुछ उसे मिला उसे सहेजते और सीखते हुए वह आगे बढ़ता रहा।
उस खुष्क मौसम की फसल बाद में आई। तीक्ष्ण ग्रहणबोध उसे प्रकृति से उपहार में मिला था। वह ख़ुशी-ख़ुशी, एक जिंदा मिसाल बनने की दिशा में चलता रहा, “अवसर उन्हीं के पास चलकर आते हैं, जो डटे रहते हैं।”
इरफ़ान तत्परता से डटा रहा।
वह जानता था कि सवाल यह नहीं है कि उसके लिए अवसर आएगा अथवा नहीं, सवाल यह था कि जब अवसर आएगा तो वह तब उसके लिए तैयार होगा अथवा नहीं।
मेरे विचार से, वह सचेत तौर पर उस अवसर के लिए लगातार तैयारी करता रहा। न तो लम्बे समय के संघर्ष में मिली अस्वीकृतियों और निराशाओं को और न ही उस कामयाबी, जिसका वह हमेशा से हकदार था, को अपने सिर पर सवार होने दिया।
मैंने इस इंसान में आत्म संदेह का एक कतरा भी कभी महसूस नहीं किया। न तो एक कलाकार के रूप में और न ही एक इंसान के रूप में। दूसरों पर हमेशा भरोसा करने को तैयार रहने वाले इरफ़ान के हर काम में उसकी प्रतिभा की चमक को महसूस किया जा सकता है। उसके व्यक्तित्व में किसी विशेष चुम्बकीय तत्व और कोमलता का कोई रहस्यमय सम्मिश्रण था।
कम मेहनत करने वाले कुछ कलाकारों को उससे ईर्ष्या भी होती थी, जो सोचते हैं कि इस पर तो अल्लाह का करम है या इसमें तो जन्मजात टेलेंट है या उसकी किस्मत बढ़िया है। इरफ़ान पर इनमें से कोई बात लागू नहीं होती।
कैमरे के सामने सहजता, जिसके लिए इरफ़ान जाना जाता है, उसे आसानी से हासिल नहीं हुई। न ही तीन साल के अध्ययन और अभ्यास से यह हासिल हो सकती है। इस सहजता के पीछे अभिनय के सूत्रों की विलक्षण समझदारी है।
मुझे यह कबूल करते हुए बिल्कुल भी शर्मिंदगी महसूस नहीं हो रही कि मुझे उसके अभिनय से ईर्ष्या होती रही है। कई बार उसके अभिनय में कुछ ऐसा दिखता है कि मेरी इच्छा होती है कि मैं घड़ी का रुख मोड़कर मेरे द्वारा अभिनीत किसी पुरानी भूमिका में कुछ और खास जोड़कर उसे सहेज लूं। अभिनय की ऐसी पैनी समझदारी हम जैसे कमतर अभिनेताओं को इरफ़ान का उपहार है। उसने अभिनय की हर ‘टेक्नीक’ को आत्मसात कर लिया था, इसके बावजूद, और सीखने की उसकी तड़प हमेशा बनी रही।
मेरी तारीफ़ कई बार मेरी हैरानी में भी यह सोचकर बदल जाती थी कि उसके काम और सीखने की प्रक्रिया नितांत अदृश्य किस्म की कैसे है। मेरे लिए कई बार समझना भी नामुमकिन रहा है कि अमुक भूमिका में, यह उसने किया क्या, कर कैसे लिया।
उसके अभिनय को देखकर कभी भी मैं उसकी मुक्तकंठ से तारीफ़ किये बगैर नहीं रह सका।
हममें से जो लोग अपने जिंदगी के सूर्यास्त के करीब पहुंच रहे हैं, उनके लिए भी वह एक सबक छोड़ कर गया है। जिस तरह उसने अपनी बीमारी को “हैंडल” किया, वह हमारे लिए एक बड़ा सबक है। मुझे पता नहीं क्यों लगता है कि उसे अपनी मौत के क़दमों की आहट सुनाई दे रही थी (अगर उससे पूछा जाता तो यकीनन वह यही कहता कि आखिर कितनों को ऐसा मौका मिलता है?) और वह उस स्थिति में भी उसी तरह का सूक्ष्म अवलोकन करता रहा होगा जैसा वह अपने काम के सिलसिले में करता रहा है। मुझे नहीं लगता कि कभी उसके ज़हन में आया होगा – “क्यों??”
अदम्य साहस से लड़ने और जीतने की ख्वाहिश के बावजूद उसकी देह ने उसका साथ नहीं दिया।
हम सब के लिए हमेशा यह रहस्य बना रहता था कि अगली भूमिका में वह पता नहीं कौन सा जादू बिखेरेगा पर कौन जानता था कि दस साल के अरसे में तमाम बुलंदियों को छूकर एक दिन अचानक वह हमारा दिल यूँ तोड़ देगा।
हम फिलहाल खुद को यही दिलासा देकर शांत हो सकते हैं कि:
बेशक कुछ अरसे के लिए ही सही, हमने भी उसी हवा में साँसें ली थी जिस हवा को इरफ़ान ने जीया था।
बेशक कुछ अरसे के लिए ही सही, हमने भी उसी हवा में साँसें ली थी जिस हवा को इरफ़ान ने जीया था।
“जाते हुए कहते हो कि कयामत पे मिलेंगे
क्या खूब, कयामत का है गोया कोई दिन और”
-ग़ालिब
#अभिनेता नसीरुद्दीन शाह के ‘द हिंदू’ में प्रकाशित इस लेख का अनुवाद लेखक और अनुवादक कुमार मुकेश ने किया है। आलेख #जनचौक से साभार।